नवरात्र में गरबा तो है किंतु ’मां’ लुप्त हैं
नवरात्र – शक्ति की आराधना का पर्व, मां की भक्ति के साक्षात दर्शन करने का समय। आस्था प्रकट करने का सबका अलग-अलग तरीका अलग-अलग ढंग। किंतु सब बातों का मर्म एक ही है शक्ति की प्रतिरूप मां के प्रति आस्था प्रकट करना। फिर चाहे वह व्रत-उपवास रखकर की जाए, नंगे पांव चलकर शक्तिपीठों के दर्शन करके की जाए या फिर गरबा करके उसमें रमकर की जाए। मां की प्रतिमूर्ति के इर्द-गिर्द जब गरबा रमता है तो करने वाले और देखने वाले स्वतः ही उसमें डूबते चले जाते हैं।
किंतु आजकल का गरबा रास – क्या वास्तविक रूप से इसे हम आराधना का नाम दे सकते हैं? मेरे विचार से नहीं। जहां देखते हैं गली-मोहल्ले, नुक्कड़-चौराहे सब जगह आपको गरबा होता हुआ दिखाई देता है। यहां चकाचौंध, शोर-शराबा, डांस, डांडिया, रास-हास-परिहास ये सब तो है किंतु इन सबके पीछे का मर्म गायब है। नवरात्र में गरबा तो है, मौज-मस्ती, युवा पीढ़ी की थिरकन तो है बस मां नहीं है। मां के नाम पर सब कुछ है बस मां ही लुप्त है। आपको लगता है कि यहां माता की स्थापना आराधना के दृष्टिकोण से की जाती है, निश्चित रूप से नहीं। हर कोई मौज-मस्ती, चकाचौंध में मगन दिखता है माता की भक्ति में नहीं। आजकल तो इसे सेलिब्रेशन, इवेंट का नाम दे दिया है। बड़े-बड़े बिजनेस हाउस इवेंट अरेंज करने में अपनी शान समझते हैं। ’मेरे फोटो को सीने से यार’ और ’मुन्नी बदनाम हुई’ जैसे गाने बजते हुए सुनाई देते हैं। गलती आज की पीढ़ी की नहीं है उसे तो जीवन का आनंद लेना है, मौज-मस्ती, फैशन का आनंद उठाना है। उसकी इसी एनर्जी का फायदा बड़े लोग अपने मकसद के लिए उठा रहे हैं। बड़े आयोजन अपने फायदों के लिए कर रहे हैं। उनको मां से कोई लेना-देना नहीं है वो तो बस युवाओं के उत्साह का दुरूपयोग अपने निजी फायदों के लिए कर रहे हैं। यदि उन्हें इस तरह के आयोजन करना ही है तो मां के आराधना पर्व पर ही क्यों? वे यह कभी भी कर सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि आप ये सब कर नहीं सकते, कर सकते हैं किंतु गरबों के नाम पर उसे नहीं किया जाना चाहिए। यदि आप उसे माता की स्थापना और शक्ति की आराधना का नाम देते हैं तो फिर उसकी गरिमा बनी रहे इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
यह सोचने का विषय है कि आने वाली पीढ़ी को हम आस्था के नाम पर क्या सिखा रहे हैं? क्या संस्कार दे रहे हैं? डिस्को डांडिया का नाम तो हम ही दे रहे हैं ना। तो फिर इसमें किसी मर्यादा की उम्मीद की भी कैसे जा सकती है। यदि हम इसके स्वरूप को पुनः पुराने रूप में ला सकें तो एक बार फिर हम उस दैवत्व को महसूस कर पाएंगे जो शास्त्रों के अनुसार इन नौ दिनों में साक्षात पृथ्वी पर उतरता है और नए वर्ग की मानसिकता को भी सुधार पाएंगे।
सपना खंडेलवाल
संपादक
|