नौकरी के लिए दर-दर भटकता आज का डिग्रीधारी युवा
1500 डिग्रीधारक चपरासी की नौकरी के लिए कतारबद्ध। क्या यही परिदृश्य है 21वीं सदी के भारत का? प्रश्न यह आता है कि यदि इंजीनियर और एमबीए की डिग्री के बाद यथोचित नौकरी या व्यवसाय के अवसर न मिलें तो फिर इन डिग्रियों की अहमियत, इनका औचित्य क्या है?
भारतीय शिक्षा व्यवस्था की त्रासदी समझिए; यहां पासिंग मार्क्स तो 33% सुनिश्चित कर दिए गए हैं किंतु अच्छे कॉलेज में एडमिशन लेना है या एक सम्मानजनक नौकरी पाना है या अपना करियर बनाना है तो प्रतिस्पर्धा का स्तर 95% तक पहुंच जाता है। अब यह 33% और 95% के बीच की खाई युवा भारत के धैर्य को लील रही है। यदि 95% ही करियर की सफलता का पैमाना है तो फिर उसे ही पासिंग मार्क्स क्यों न निर्धारित कर दिया जाए? यदि आपको यह लगता है कि इतने प्रतिशत के बिना इंजीनियर इंजीनियर नहीं है या फिर एक मैनेजमेंट का छात्र मैनेजमेंट स्किल्स में निपुण नहीं है या फिर 12वीं का छात्र कम प्रतिशत के साथ एक ’ए’ ग्रेड कॉलेज में एडमिशन पाने का हकदार नहीं है तो फिर पासिंग मार्क्स भी उतने ही निर्धारित किए जाने चाहिए। आपने तो डिग्री देकर बाहर कर दिया, दूसरा उसको व्यर्थ समझता है तो फिर जाएं कहां? ऐसी डिग्री की मान्यता क्या है जो कहीं मान्य ही नहीं।
यह जो बीच की खाई है इसमें युवा वर्ग डिप्रेशन और फ्रस्टेशन का शिकार हो रहा है। एक अच्छे करियर की चाह में डिग्रियां तो जमा हो रही हैं किंतु उचित जीविका के साधन न बन पाने की वजह से जो आक्रोश पनप रहा है वो युवाओं को अपराधों की तरफ अग्रसर कर रहा है। ’खाली दिमाग, शैतान का घर’ जैसी कहावत चरितार्थ हो रही है।
यह शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकों के सोचने का विषय है कि वे शिक्षा ले रहे छात्रों को उनके विषय से संबंधित ज्ञान में वास्तविक रूप से पारंगत करें सिर्फ परीक्षा पास करने के दृष्टिकोण से नहीं। थ्योरीटिकल नॉलेज के साथ प्रेक्टिकल स्क्लिस इतनी पावरफुल हो कि संबंधित विषय में छात्र कार्यक्षेत्र में निपुणता पा सके सिर्फ किताबों की नहीं। शिक्षकों को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए कि वो जिस छात्र को पास करके डिग्री दे रहे हैं वह उस विषय में पूर्ण रूप से पारंगत है या नहीं। व्यक्तिगत तौर से यह शिक्षकों की ड्यूटी में शामिल होना चाहिए। उन्हें कैरियर तक पहुंचा कर कमाने की स्थिति तक लाने की जवाबदेही उन शिक्षकों की होनी चाहिए। ऐसे में वह व्यक्ति सिर्फ नौकरी के भरोसे नहीं रहेगा, अपने ज्ञान का उपयोग करके कहीं भी किसी भी परिस्थिति में अपनी जीविका कमा सकता है।
शिक्षा का उद्देश्य नौकर पैदा करना नहीं बल्कि एक ’सेल्फ डिपेन्डेन्ड पर्सनेलिटी’ बनाना होना चाहिए। तभी आप बेरोजगार भारत को एक आत्मनिर्भर भारत में बदलते देख पाएंगे।
एक दूसरा पहलू यह है कि युवा वर्ग को डिग्रियां देने में देश का, परिवारों का, सरकार का जो पैसा लग रहा है उसका तो कोई विचार ही नहीं करता। मैं यह नहीं कहती कि डिग्रियां दी ही क्यों जा रही हैं बल्कि कहने का मतलब यह है कि डिग्रियों के स्तर तक आप उनको लेकर जाएं जिनके बेहतर भविष्य की आप व्यवस्था कर सकते हैं। अन्यथा उन्हें किसी और क्षेत्र में पनपने दें, अपने हुनर का उपयोग करते हुए बेहतर जीविका के साधन बनाने दें।
सपना खंडेलवाल
संपादक