Friday, September 1st, 2017
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बार डांसर, पापी पेट और अश्लीलता का सवाल




बार डांसरों पर से बैन हटने के बाद श्लील-अश्लील की बहस एक बार फिर छिड़ गयी है. लेकिन दुखद बात यह है कि इस पूरे मामले में सबकी उंगलियां सबसे कमजोर तबके यानी डांसरों पर ही उठ रही हैं.

 

bar dancer

सुबह के चार बजे हैं. मैं दक्षिणी दिल्ली के सबसे पॉश इलाके ग्रेटर कैलाश 2 के एम ब्लॉक मार्केट में स्थित 24/7 बार ऐंड रेस्टोरेंट के सामने से गुजर रही हूं. सड़क पर दो बड़ी विदेशी कारें खड़ी हैं जिनमें तेज संगीत बज रहा है. कारों के दरवाजे खुले हुए हैं. उनके भीतर और बाहर कुछ युवक और युवतियां नशे में धुत पड़े हैं जबकि कुछ और अब भी थिरक रहे हैं. अपने कपड़े लत्तों से एकदम बेपरवाह इन युवक-युवतियों को देखकर कोई भी शर्म से अपनी नजरें झुका लेगा. जानकारी के लिये बता दूं कि दिल्ली में डांस बार का कल्चर नहीं है.

देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा कुछ दिन पहले कुछ शर्तों के अधीन डांस बार दोबारा चलाने की इजाजत दिये जाने के साथ ही डांस बार को लेकर नैतिक-अनैतिक की बहस एक बार फिर छिड़ गयी है. सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि बार में डांस हो सकता है लेकिन उसमें अश्लीलता नहीं होनी चाहिये.

सवाल यह है कि इस विविधतापूर्ण देश में श्लील और अश्लील की परिभाषा कौन तय करेगा? सुप्रसिद्ध नारीवादी चिंतक रमणिका कहती हैं कि देश में श्लील और अश्लील की बहस बहुत पुरानी है। किसी को जींस अश्लील लगती है लेकिन बलात्कार या किसी भी आपात स्थिति में यह पहनावा महिलाओं की ’शर्म’ ढकने तथा उन्हें बचाने में अधिक मददगार है. साड़ी जैसे पारंपरिक परिधान पहनने वाली महिला तो चार कदम दौड़ भी नहीं सकती. अगर दौड़ी भी तो गिर जाएगी. इसी देश के कई प्रदेशों में कमर के ऊपर वस्त्र नहीं पहनने का प्रचलन रहा है. स्पष्ट है कि अश्लीलता को परिभाषित करना खासा कठिन होगा.

बहरहाल हम बार डांसरों के मुद्दे पर वापस आते हैं. वर्ष 2005 में जब तीन सितारा से नीचे दर्जे वाले होटलों में बार डांसरों पर रोक लगाई गई तो अचानक इनकी संख्या एक लाख से घटकर 20,000 पर आ गई. क्या किसी ने कभी परवाह की कि बाकी की 80,000 लड़कियां कहां गयीं? रिपोर्ट बताती हैं कि इनमें से अधिकांश को अपना पेट पालने के लिये जिस्मफरोशी के धंधे में उतरना पड़ा. क्या यह बार में डांस करने से बेहतर था? इसका जवाब हमें अपने आप से पूछना होगा?

सरकार के पास बार में होने वाले डांस में अश्लीलता रोकने के कई तरीके थे और आज भी हैं. उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

– बार डांसरों का रजिस्ट्रेशन करना
-बार में हर जगह सीसीटीवी कैमरे लगाना
-समय-समय पर इनकी फुटेज चेक करना
-बार डांसरों के पुनर्वास की कोशिश करना

लेकिन सरकार ने तो केवल बार डांस पर बैन लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली. इसके त्रासद नतीजे हमें आत्महत्या, जिस्मफरोशी और बलात्कार के रूप में देखने को मिले. वरिष्ठ लेखक और पत्रकार भारतेंदु विमल कहते हैं, ’प्रतिबंध के चलते यह सुनियोजित कारोबार पूरी तरह तितर-बितर हो गया. भारत के कोने-कोने से आई गऱीब परिवारों की अर्धशिक्षित लड़कियों की रोज़ी-रोटी रातोंरात छिन गई, इनमें से ज्यादातर को सिवाय देह व्यापार के कोई और रास्ता न मिला, कई लड़कियों ने आत्महत्या तक की.

जाहिर है नाचना बंद करने के बाद इन गरीब लड़कियों के पास बेचने को केवल एक चीज बची और वह था उनका जिस्म. सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोट के इस युग में जहां हर हाथ में स्मार्ट फोन और उस पर हाई डिफिनिशन क्वालिटी के पोर्न वीडियो मुफ्त में उपलब्ध हैं, जहां अश्लील पत्र पत्रिकाओं और इंटरनेट पर ऐसी सामग्री की भरमार है वहां यह मानना बहुत बड़ा भोलापन है कि डांस बार से समाज में अश्लीलता और गंदगी फैलती है.

अगर कहीं गंदगी है तो वह हमारे दिमाग में है. 10 साल के प्रतिबंध के बाद तो डांसरों की एक पूरी पीढ़ी उम्रदराज हो चुकी है. सरकार को अब यह सुनिश्चित करना चाहिये कि कोई लड़की मजबूरी में भी इस पेशे को न अपनाये, अगर उसे ऐसा करने के लिये मजबूर होना पड़ता है सरकार यह सुनिश्चित करे कि वह हमारे दोहरे मापदंड वाले समाज में सम्मानपूर्वक जिंदगी बिता सके. एक वेलफेयर स्टेट में हर किसी को सम्मान के साथ अपना पेट पालने का अधिकार तो है ही.

Pooja Singh

 

पूजा सिंह
वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल

 

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