सुकून के दो पल खो गए नंबर गेम, मनी गेम में
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हर व्यक्ति की यह चाह होती है कि सुकून के दो पल मिल जाएं तो कितना अच्छा हो। सुबह से शाम तक हमारी भागदौड़ का मकसद भी यही होता है। किंतु क्या हम यह ले पाते हैं या फिर कितने लोग ऐसा कर पाते हैं? बचपन से जवानी तक का समय पढ़ाई में निकल जाता है फिर जवानी और बुढ़ापा करियर और परिवार में निकल जाता है। फिर हम सोचते हैं कि सुकून के दो पल बुढ़ापे में गुजारेंगे, लेकिन तब हमारी हालत नहीं होती सुकून से जीने की।
बचपन से ही पढ़ाई को प्रेशर शुरू हो जाता है। हम होश संभाल भी नहीं पाते और पढ़ाई व नंबर गेम शुरू हो जाता है। हमारी शिक्षा पद्धति यहीं से गलत साबित हो रही है। मां-बाप का प्रेशर भी बहुत होता है। वह भी इतनी जल्दी में रहते हैं कि पता नहीं हमें क्या बना डालेंगे । कुल मिलाकर बचपन का सुकून नंबर गेम की भेंट चढ़ जाता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं शिक्षा का प्रेशर बढ़ता ही जाता है। अब चहरों पर खिलखिलाहट कम चिड़चिड़ापन ज्यादा नज़र आने लगता है। कई बच्चे इस प्रेशर को झेल नहीं पाते हैं तो आत्महत्याएं तक कर बैठते हैं फिर भी समाज और सरकार नहीं जागते। इस नंबर गेम का परसेंटेज बढ़ता ही जा रहा है। गाड़ी की रफ्तार के साथ-साथ हमारे जीवन की स्पीड भी बढ़ती जा रही है। बड़े होते ही करियर और पैसा हमारे पीछे लग जाता है। अब नंबर गेम के साथ मनी गेम भी शुरू हो जाता है। सुकून के दो पल यहां भी गायब ही रहते हैं। बचपन की चिंता बड़ा विकराल रूप ले लेती है। मनी गेम का खेल तो और भी चिंतनीय है। कुछ व्यक्ति यहां तक पहुंचते-पहुंचते या तो आत्महत्या कर लेते हैं या मनी गेम के दुष्परिणामों में भ्रष्टाचार, चोरी इत्यादि क्राइम में संलग्न हो जाते हैं। मतलब टेंशन महाटेंशन का रूप ले लेता है। विकास हर तरफ होता है किंतु गलत दिशा के साथ इसलिए सुकून के दो पल भी नसीब नहीं होते। खुशी सिर्फ दिखावे में तब्दील हो जाती है। उम्र के अंतिम पायदान तक आते-आते इतना टेंशन इकट्टा हो जाता है कि अब उससे छुटकारा पाना मुश्किल हो जाता है। न शरीर साथ देता है और न ही मन। बस जीवन जीने के बजाय काटना भर रह जाता है।
दुनियादारी के इस चक्कर में कुदरत के द्वारा दी गयी एक बेहतरीन जिंदगी गुजारने भर की सजा बनकर रह जाती है। प्रकृति ने हमें जीवन जीने के लिए अप्रतिमा दुनिया, एक से बढ़कर एक खाद्य पदार्थ, खूबसूरत वातावरण, प्रचुर मात्रा में जीवन जीने के साधन दिए हैं। कमी किसी बात की नहीं है फिर भी हम अपने ही द्वारा पैदा परेशानियों में उलझकर, नंबर गेम, मनी गेम में लगकर सुकून से जिंदगी नहीं जी पाते।
विकास के नाम पर दुनिया में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़, एक-दूसरे पर कब्जा करने की मंशा ने हमें सुकून और शांति की बजाय बारूदों का ढेर दे दिया। नित नई लड़ाइयां, राजनीति की बदौलत पैदा आतंकवाद मानव व मानवता का खून करता दिखता है। सभी देशों ने शांति और बचाव के नाम पर अनन्त बारूदों का भंडार इकट्ठा कर लिया है और चर्चा करते हैं अमन और शांति की।
सही राह दिखाने के लिए कितने ही धर्म हैं, धर्म की पताका लिए संतगण हैं लेकिन वे स्वयं ही दुनिया में अमन, प्रेम, भाईचारा, सुकून का वातावरण बनाने की बजाय स्वयं ही लड़-मर रहे हैं। स्वयं का झंडा ऊंचा करने में संलग्न हैं। स्वयं ही वैभवता की मशाल ऊंची करने के लिए साम-दाम दंड-भेद करने में लगे हैं।
दूसरी ओर शिक्षा के जिम्मेदार बुद्धिजीवी महज विषयागत ज्ञान तक सिमटकर मनी गेम सीखते-सिखाते नजर आते हैं। सुकून का मूलमंत्र किसी भी दिशानिर्देशक के पास नहीं है। उसका ज्ञान जीवन से लुप्तकर होकर महज लाइब्रेरियों में बंद किताबों तक सिमट गया है। ऐसे में हमारे युवा साथियों को ही तय करना है कि वे इन नंबर गेम – मनी गेम में उलझ कर सुकून खत्म करें या इससे बचकर अपना सुकून ढूंढे और और जीवन जीने की राह निकाल कर जीएं।
सुमेश खंडेलवाल
प्रधान संपादक
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