परदे पर मुख्य भूमिका में नहीं मुसलमान किरदार
पिछले 60-70 साल में बॉलीवुड ने खूब तरक्की की है. राजा-महाराज और देवताओं की जगह फिल्मों में एलियन तक आ गये लेकिन अगर कुछ नहीं बदला है तो वह हैं परदे पर मुस्लिम किरदार. परदे पर आम हिंदू की तरह आम मुस्लिम किरदार कम ही नजर आते हैं. ले देकर उनके पास वही नवाब साहब, आतंकवादी और हीरो के वफादार दोस्त की भूमिकाएं है.
हिंदी सिनेमा की यह आम समस्या है. यहां परदे पर माइनॉरिटी को नायक का दर्जा शायद ही कभी मिला हो. फिर चाहे वो सिख हों, ईसाई हों या फिर मुसलमान हों. मुस्लिम समाज देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग है लेकिन हिंदी फिल्मों ने इनके कैरेक्टर को भी एक खास खांचे में बांधे रखा, हीरो बहुत कम ही बनाया. आजादी के बाद कुछ समय तक जहां मुस्लिम किरदार हिंदी फिल्मों में हीरो बनकर आए वहीं बाद में उनकी जगह सिमटकर हीरो के दोस्त या अंकल तक रह गई. हां, ताजा शताब्दी के दौरान उनके खाते में एक और रोल फिट हो गया है और वह है आतंकवादी का रोल. आमिर खान हों या शाहरुख अथवा सलमान खान, उनके द्वारा निभाये पात्र किसी इकबाल, रहमान या सादिक के नहीं बल्कि संजय सिंहानिया, राहुल या राज मल्होत्रा और किसी प्रेम या पवन चतुर्वेदी के ही होते हैं.
मुस्लिम यानी नवाब साहब
आजादी के तत्काल बाद बड़े पैमाने पर ऐसी फिल्में बन रही थीं जिनमें मुस्लिम परिवार और उनकी संस्कृति केंद्रीय भूमिका में थे. जाहिर है उस दौर में फिल्मी परदे पर मुस्लिम नायकों की कोई कमी नहीं थी. फिर चाहे वह ‘चौदहवीं का चांद’ के असलम की भूमिका में गुरुदत्त हों या ‘मेरे महबूब’ में अनवर बने राजेंद्र कुमार, ‘पाकीजा’ की साहिबजान की भूमिका में मीनाकुमारी हों या सलीम बने राजकुमार. ऐसे अनेक पात्र सामने आते हैं. यह आजादी के बाद के दो-तीन दशक का वक्त था. लेकिन मुस्लिम प्रधान फिल्मों में भी मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार हमेशा नदारद रहा. ऐसी तमाम फिल्मों में मुस्लिमों को नवाब साहिब या जमींदार के रूप में पेश किया गया यानी उनकी सामंती छवि को ही भुनाने की कोशिश की गयी. मुस्लिम मध्य वर्ग के फिल्मों नहीं नजर आने की यह एक अहम वजह है. जबकि यह बात हिंदू नायकों पर लागू नहीं होती. हिंदू नायकों में बहुत पहले मध्यमवर्गीय परिवेश आ चुका था. सत्तर के दशक में अमिताभ बच्चन एंग्रीयंगमैन बनकर हमारे सामने आ चुके थे जबकि मुस्लिम नायक सन 60 के दशक में ‘मेरे महबूब’ और ‘चौदहवीं का चांद’ से लेकर 80 के दशक में ‘निकाह’ और सन 1990 के दशक में ‘सनम बेवफा’ फिल्म तक नवाबी और कबीलाई जिंदगी जी रहे थे.
कैरेक्टर आर्टिस्ट के रूप में
फिर वह दौर आया जब हिंदी सिनेमा में मुस्लिम नायकों का दायरा सिमटने लगा. कुली फिल्म के इकबाल के रूप में अमिताभ बच्चन और उमराव जान और निकाह जैसी पूरी तरह मुस्लिम संस्कृति पर आधारित फिल्मों को छोड़ दिया जाये तो मुस्लिम किरदार सहायक कलाकार की भूमिका में आने लगे थे. अक्सर हिंदी फिल्मों के नायक और नायिक परेशानी की स्थिति में किसी फकीर दरवेश की दरगाह पर जा पहुंचते हैं जहां कोई मुस्लिम कव्वाली गा रहा होता है. वे या तो नायक के दोस्त होते थे या फिर हास्य कलाकार. संतुलन बनाने के लिए उस दौर में अक्सर हिंदू नायक का वफादार साथी एक मुसलमान हुआ करता था. ‘जंजीर’ फिल्म में अमिताभ के वफादार पठान दोस्त की भूमिका में प्राण हों या ‘शोले’ में नेत्रहीन इमाम साहिब बने एके हंगल. अक्सर यह देखने को मिलता था कि मुस्लिम पात्रों को अपने हिंदू मित्रों के प्रति वफादारी दिखाते हुए अपनी जान गंवानी पड़ती थी.
अंडरवर्ल्ड डॉन और आतंकवादी
इस बीच सन 1970 और 80 के दशक में हिंदी फिल्मों में एक और अवधारणा ने जन्म लिया. यह था मुंबई के अंडरवल्र्ड चरित्रों का चित्रण जो आमतौर पर मुसलमान हुआ करते थे. यह बॉलीवुड की फिल्मों में मुस्लिमों के नकारात्मक चित्रण की शुरुआत थी जिसने बाद में जोर पकड़ लिया. ‘रोजा’ संभवत: वह पहली फिल्म थी जिसमें कश्मीर, पाकिस्तान और मुस्लिम आतंकवादी पहली बार स्पष्ट रूप से दिखाये गये. उसके बाद तो भेड़चाल के शिकार बॉलीवुड में ऐसी फिल्मों का बोलबाला हो गया. पाकिस्तान हिंदी सिनेमा का सबसे प्रिय खलनायक बन चुका था. बीच में ‘गदर’ जैसी फिल्में आयीं जिनमें एक व्यक्ति ने अकेले पूरे पाकिस्तान को ही नेस्तनाबूद कर दिया. इधर अल कायदा के हमले में अमेरिकी ट्विन टॉवर ध्वस्त होने के बाद पूरे विश्व सिनेमा में मुस्लिमों को खुलकर आतंकवादी के रूप में दिखाया जाना शुरू कर दिया गया. हिंदी सिनेमा भी इससे पीछे नहीं रहा. ‘कुर्बान’ ‘कांधार’, ‘एजेंट विनोद’, ‘द अटैक ऑफ 26/11′, ‘एक था टाइगर’, ‘बेबी’, ‘आमिर’, ‘मिशन कश्मीर’, ‘शाहिद’, ‘मुंबई मेरी जान’, ‘फैंटम’ जैसी फिल्मों की पूरी सूची है. सिनेमा को अपनी इस कमी पर ध्यान देना चाहिये. उसकी लापरवाही से एक पूरी कौम की छवि खराब हो रही है. बेहतर है बॉलीवुड के जिम्मेदार निर्माता निर्देशक फिल्मों को केवल पैसे कमाने का जरिया समझने के बजाय देश की सच्ची तस्वीर पेश करें.
पूजा सिंह
वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल
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