कॉर्पोरेट की जॉब छोड़कर बनी देश की पहली एमबीए महिला सरपंच
एमबीए कर कॉर्पोरेट सेक्टर मे जॉब करने के बाद क्या कोई सोच सकता है कि ऐसी जगह जाकर रहे जहां बिजली और पानी जैसी बेसिक फैसिलिटीज भी न हों। सोचकर ही कितना असहज हो जाते हैं हम। लेकिन ऐसा उस लड़की ने कर दिखाया जो सभी सुविधाओं और लक्जुरियस लाइफ के साथ मैट्रो सिटीज में रह रही है। ये है राजस्थान के सोडा गांव की सरपंच छवि राजावत। देश की पहली महिला सरपंच जो एमबीए है। जिनका कार्पोरेट सेक्टर में अच्छा करियर रहा है। छवि किसी मॉडल से कम नहीं दिखतीं।
आसान तो कुछ भी नहीं है…
छवि कहती है कि पढ़ाई के बाद किसी बेहतर कंपनी के साथ काम करना या फिर गांव की सरपंच होकर यहां की दिक्कते दूर करना दोनों ही जगह संघर्ष है। हां, मेरी पढ़ाई , बाहर रहने के अनुभव और लिंक्स का फायदा मुझे जरूर मिला है। लाइमलाइट में आ जाना और हजारों लोगों की उम्मीद आप से जुड़ ज़ाना पॉजिटिव ही सही एक प्रेशर तो बनता ही है आप पर। सरपंच बनने के बाद जब मैंने काम के सिलसिले सरकारी ऑफिसों में जाना और लोगों से मिलना शुरू किया तो अक्सर मुझे सिरीयसली नहीं लिया जाता था। उन्हें लगता था कि में लाइम लाइट को एनजॉय करने के लिए काम का दिखावा कर रही हूं।
मेरे गांव की नहीं जिले की दिक्क्कत है-
अपने गांव में पानी की कमी से निपटना मेरे लिए सबसे बड़ा चैलेंज था और काफी हद तक अब भी है। मेरा गांव सूखे की समस्या से जूझता है। शुरू में मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। हमारे गांव का तालाब जो देखभाल न होने की वजह से मिट्टी से भर गया था। बारिश से पहले उसे साफ कराना चाहती थी। ताकि लोगों को कुछ हद तक तो पानी की समस्या से राहत मिले। सरकारी मदद के लिए भी काफी गुहार की, लेकिन बात नहीं बनी। फिर मेरी फैमिली और रिलेटिव्स ने मिलकर 20 लाख रूपए लगाकर तालाब ठीक कराया। इसके बाद गांव वालों ने आगे बढ़कर मदद की।
आसान नहीं था फैसला लेना-
मैेंं मेट्रो सिटीज में रही, जॉब किया ये अलग बातें हैं। लेकिन मेरी रूट्स तो गांव में ही हैं। मैं अक्सर छुट्टियों मे अपने गांव आती थी और यहां की जरूरतों और दिक्कतों के बारे मं जानती थी। बचपन से ही सिखाया गया कि किसी भी व्यक्ति को उसके इकोनॉमिकल स्टेटस से जज मत करो। मेरे दादाजी आर्मी में थे और पैरेंट्स सोशल वर्कर हैं। मेरे दादाजी तीन बार गांव के सरपंच रहे। अपने गांव में बहुत काम किया। मेरे जॉब छोड़कर गांव आने का फैसला आसान नहीं था। एक तरफ करियर ग्रोथ और मौके थे, वहीं दूसरी तरफ गांव वालों की उम्मीदें।
सहुलियतों मे रहने के बावजूद मुश्किल भरा रास्ता-
छवि की एजुकेशन बैंगलोर और अजमेर में हुई। दिल्ली के लेडी श्रीराम से ग्रेजुएशन किया और पुणे के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मॉर्डन मैनेजमेंट से एमबीए। स्ट्रगल के बारे में छवि की राय एकदम अलग है। वो कहती हैं कि खुद को प्रूव करने के लिए हर किसी को हर स्तर पर संघर्ष करना पड़ता है। जो किसी लेवल पर पहुंचना चाहते हैं वो वहां पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और जो किसी स्तर पर है वो वहां बने रहने के लिए।
अन्य सरपंच भी करने लगे हैं मेरी पॉलिसीज पर भरोसा-
मुझे सरपंच बनाने का विचार मेरे गांव वालो का था। मुझे जींस टॉप और फिटेड टापॅ पहनकर पंचायत में बैठने में कोई दिककत नहीं होती। सरंपच बनने के लिए मुझे ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। संघर्ष तो सरपंच बनने के बाद शुरू हुआ। अब मेरे गांव के आसपास के सरंपच भी मेरी पॉलिसीज पर भरोसा करते हैं यहां तक की मेरी वर्क पॉलिसी को वो अपने यहां भी इंप्लीमेट करने को तैयार हैं।
शिक्षा नहीं जागरूकता है सफलता की कुंजी-
मैं अपने अनुभवों के आधार पर कह रही हूं कि एजुकेशन बहुत जरूरी है, लेकिन सफलता के लिए इतना ही काफी नहीं है। इसके लिए जागरूक होना बहुत जरूरी है। मैं अपने गांव में महिलाओं और युवाओं को लेकर आगे बढ़ रही हूं। महिलाओं से हेल्थ, एजुकेशन जैसे इशू पर बात करती हूं। युवाओं को फंडिग के बारे मे बताती हूं। मैं सरपंच काम करने और मॉडल्स को लागू करने के लिए बनी हूं। सरकार , नॉन गवर्नमेंट सेक्टर्स और गांव वालों के बीच ब्रिज का काम करना चाहती है….. और मैं इस राह पर बढ़ रही हूं।
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