कभी सिंहस्थ में हुआ था भयंकर घमासान, मारे गए थे हजारों महात्मा
प्राचीन प्रमाणानुसार उज्जैन में वृश्चिक राशि में गुरू आने पर कुंभ मनाया जाता था। ईस्वी सन् 1930-31 में मालवा प्रान्त पर मराठों का आधिपत्य हुआ तथा सिंधिया राजवंश के संस्थापक तत्कालीन राजधानी उज्जैन के महाराजा श्री राणोजी शिन्दे की आज्ञा से सन् 1732 ईस्वी में उनके कर्मवीर दीवान बाबा श्रीराम चंद्रराव खुखटन करने वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ पर्व का आयोजन किया गया तथा उसके बाद से सिंहस्थ कुंभ पर शिन्देसाही की ओर से मेले का समस्त प्रबंध होता रहा।
ईस्वी सन् 1789 के बाद 1800 में सन् 1862 के बाद 1873 में व सन् 1969 के बाद 1980 में, 11 वर्षों के बाद सिंहस्थ कुंभ मनाए गए। आगे भी सन् 2028 के बाद 2039 में, सन् 2111 के बाद 2122 में तथा सन् 2194 के बाद 2205 में 11 वर्षों के बाद ही सिंहस्थ मनाया जाएगा। बाकी समय 12 वर्ष के बाद सिंहस्थ होगा।
सन् 1838 इस्वी (विक्रम संवत् 1895) के सिंहस्थ पर्व पर वैष्णवों व सन्यासियों में भयंकर लड़ाई हुई जिसमें दोनों तरफ के हजारों महात्मा मारे गए। वैष्णवों द्वारा लक्खीघाट स्थित नागाओं के मठ, जिसमें भगवान श्रीदत्तात्रेयजी का स्वर्ण मण्डित मंदिर था को लूट लिया गया। प्रत्युत्तर में सन्यासियों द्वारा वैष्णवों के अखाड़े लूट लिए गए।
इसके बाद सन्यासियों द्वारा उज्जैन के कुंभ का त्याग कर दिया गया किंतु विक्रम संवत् 1963 में बड़बाई (इंदौर) में चतुर्मास कर रहे जूना अखाड़े के रमता पंच के श्रीमहंत रामगिरिजी 14 मढ़ी व अन्य श्रीमहंतों से महाराजा शिवाजीराव होल्कर ने उज्जैन कुंभ चालू करने की प्रार्थना की तथा अन्य अखाड़ों के श्रीमहंतों को व महाराजा माधवराव शिंदे आदि को बुलाकर निश्चय किया कि त्रयंबक का कुभ कर वैशाख पूर्णिमा सन् 1966 विक्रमी तद्नुसार दिनांक 05 मई सन् 1909 इस्वी को सिंहस्थ कुंभ उज्जैन में मनाया जाएगा और इस प्रकार उज्जैन का कुंभ पुनः प्रारंभ हुआ।
सन् 1921 (विक्रम संवत् 1978) के सिंहस्थ का शाही स्नान वैशाख पूर्णिमा (दिनांक 21 मई शनिवार) के दिन स्नान के समय ही महामारी भयंकर प्रकोप हुआ जिसमें हजारों लोग व साधु की मृत्यु हुई। शासन द्वारा तत्काल नगर खाली करने का ऐलान किया गया और लोगों को, जो भी साधन प्राप्त हुआ से बाहर भेजा गया।
सन् 1732 ईस्वी से सन् 1933 ईस्वी तक के हर सिंहस्थ कुंभ पर सिंधिया राज्य (ग्वालियर स्टेट) की तरफ से परंपरा रही कि सिंहस्थ पर्व के 3-4 वर्ष पूर्व ही उज्जैन के ज्योतिषियों से सिंहस्थ पर्व के समय, संवत्, तिथि आदि का निर्णय करवा प्रयागराज के कुंभ के अवसर पर वहां एकत्रित अखाड़ों को विधिवत आमंत्रित किया जाता था तथा पर्व की एक माह की अवधि में 15 दिन तक समस्त अखाड़ों, जमातों व साधु-संतों के भोजन की व्यवस्था राज्य की तरफ से की जाती थी तथा शेष के 15 दिनों की व्यवस्था उज्जैन की धार्मिक जनता करती थी। पर्व की समाप्ति पर राज्य की ओर से समस्त साधु संतों को उनकी पद गरिमानुसार शॉल, भेंट आदि से सम्मानित किया जाता था। यह व्यवस्था सन् 1933 ईस्वी के सिंहस्थ कुंभ तक बराबर चली। सन् 1945 ईस्वी के सिंहस्थ कुंभ पर्व को न मनाए जाने का स्टेट द्वारा आदेश निकाला गया, किंतु साधु-संतों व उज्जैन की धार्मिक जनता ने इस आदेश को स्वीकार नहीं किया और सिंहस्थ कुंभ मनाया गया। स्टेट की बजाय 15 दिन की व्यवस्था श्रीदत्त अखाड़े के गादीपति श्रीमहंत पीर श्री सन्ध्यापुरीजी महाराज ने की तथा 15 दिन की उज्जैन के धार्मिक भक्तगणों द्वारा।
इसके पश्चात सन् 1956-57 ईस्वी के सिंहस्थ कुंभ को लेकर श्री करपात्रीजी एवं दण्डी स्वामी तथा अखाड़ों के मध्य विवाद चला किंतु षद्दर्शन अखाड़ों ने सन् 1957 ईस्वी में ही सिंहस्थ मनाया। इसी प्रकार सन् 1968-69 ईस्वी के सिंहस्थ कुंभ को लेकर वैष्णव अखाड़ों व संन्यासी अखाड़ों में विवाद रहा जिसके फलस्वरूप वैष्णव अखाड़ों ने 1968 ईस्वी में सिंहस्थ कुंभ मनाया।
proujjain.com से साभार
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