कब तक चलेगी लड़ाई
By Gourav tiwari
भारत में महिलाओं को बराबरी का दर्जा वैसे तो कब का मिल चुका है। हर जगह यह बात देखने, सुनने और पढ़ने मिलती है कि महिलाएं पुरूषों से कंधे से कंधा मिलाकर या फ़िर उनसे आगे बढ़कर अपने दायित्वों का निर्वहन कर रही है, लेकिन आज भी धर्म के नाम पर उन्हें बराबरी का वो स्थान नहीं मिल पाया है जिनकी हकदार वो जन्म से हैं। अपने हक की लड़ाई के लिए महिलाएं ना जाने कब से आवाज़ बुलंद करती आ रही है, लेकिन हर बार उनकी आवाज़ या तो रूढिवादी पंरपरा या फ़िर अंधविश्वास के चलते दबा दी जाती है। देश में कई ऐसे धार्मिक स्थान हैं जहाँ पर महिलाओं के जाने पर पाबंदी है। इसमें दक्षिण का सबरीमाला, अहमदनगर का शनि शिगणापुर मंदिर, मुंबई का हाजीअली दरगाह शामिल है। ऐसा नहीं है कि केवल इन तीन जगहों पर महिलाओं की एंट्री बैन हो इनके अलावा कई ऐसे स्थान हैं जहाँ पर महिलाएँ पूजा अर्चना तो दूरी की बात पैर भी नहीं रख सकती।
इन तीन जगहों का नाम इसलिए सामने आ रहा है क्योंकि इन जगहों पर प्रवेश के लिए महिलाओं ने एक बार फ़िर अपनी आवाज़ बुलंद की है। सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के लिए सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही हैं। वहीं बाम्बे हाईकोर्ट ने दिए अपने फ़ैसले में कहा है कि महिलाओं के हक की रक्षा राज्य सरकार (महाराष्ट्र सरकार) की ज़िम्मेदारी है। अब यह सवाल उठता है कि जब हम महिलाओं को बराबरी का स्थान समाज में मिल चुका है तो फ़िर उन्हें धर्म से दूर क्यों किया जा रहा है। करीब एक सप्ताह बाद नवरात्र पर्व की शुरूआत हो जाएगी। जिसमें देवी की उपासना होगी हर तरफ़ सेवा-भाव पूजा अर्चना का वातावरण नज़र आएगा लेकिन फ़िर नौ दिन बाद स्थिति जस की तस हो जाएगी। आख़िर में क्यों महिलाओं को धर्म और आस्था से दूर रखा जा रहा है। क्या वो ईश्वर की संतान नहीं है या फ़िर हर धर्म में लिखी बातें ग़लत हैं जिसमें कहा गया है कि स्त्री और पुरूष भगवाग, अल्लाह, रब, ख़ुदा या फ़िर गॉड की संतान है। ईश्वर की संताने होने के बाद भी उन्हें अपने हक के लिए कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने पड़ रहा है।
देश इतना आगे बढ़ चुका है इसके बाद भी हम भूतकाल की परिपाटियों को लेकर चल रहे हैं या फ़िर हमारा धर्म इतना कमज़ोर है कि महिलाओं के पूजा अर्चना या फ़िर इबादत करने से वो भ्रष्ट हो जाएगा। अब देखना होगा कि महिलाओं को उनका हक सम्मान के साथ समाज में दिया जाता है या फ़िर सैंकड़ों सालों से चली आ रही बराबरी की लड़ाई और आगे कितने साल चलती है। लेकिन अंत में यह सोचने पर मजबूर होना चाहिए कि एक तरफ़ हम महिलाओं के साथ चलने की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें धर्म से दूर रखते हैं। इन दोनो ही बातों में ज़मीन आसमान का फ़र्क है। हमें यह निश्चित करना होगा कि हमें उन्हें साथ लेकर चलना चाहते हैं या फ़िर अंधविश्वास और रूढिवाद पंरपरा को बरकरार रखना चाहते हैं।
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