वुमन इम्पावरमेंट का माध्यम बनती फिल्में
समकालीन दौर में ऐसी अनेकों फिल्में बनी हैं जो महिलाओं को एक नए नजरिए से पेश करती है और हमारी सोच में भी बदलाव लाती हैं। ‘चक दे इंडिया’ फिल्म में एक तरफ परिवार है दूसरी तरफ कैरियर। महिला को किसी एक को चुनने का अंर्तद्वंद्ध है। वही महिला जो सामान्य मिडिलक्लास फैमिली से है वह शादी की बजाय हॉकी जैसे खेल को करियर के रूप में चुनती है। इसके जरिए समाज को एक सार्थक मैसेज देने की कोशिश की गई।
गौरी शिंदे की फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ एक इंग्लिश न जानने वाली महिला पर केंद्रित है। वह महिला अपने पूरे एफर्ट्स लगाकर अपने आत्मविश्वास के बल पर जीत हासिल करती है और आत्मसम्मान से लबरेज होकर ज़िन्दगी जीने की जिद में सफल होती है।
आज भी कार्यस्थल पर महिलाओं को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। स्त्री-पुरूष के बीच भेदभाव की 136 कंट्रीज़ की लिस्ट में भारत का स्थान 101वें नंबर पर है। फिर भी महिलाएं घर से बाहर निकलकर अपनी पहचान बना रही हैं और परिवार की इकोनॉमी बेहतर बना रही हैं। जोया अख्तर की फिल्म ‘ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा’ में दो महिलाएं लैला और नताशा वर्किंग वुमन की लाइफ की प्रॉब्ल्मस को काफी अच्छी तरह से परदे पर अभिव्यक्त करती है।
‘बचना ए हसीनों’ में नायिका पढ़ाई के साथ-साथ काम करती है और रात को टैक्सी भी चलाती है। वह अपनी सुरक्षा के लिए हथियार भी रखती है। इस प्रकार से वह एक स्वतंत्र, निडर और आत्मसम्मानी लड़की के रूप में हमारे सामने आती है और उस जैसी अनेकों लड़कियों के लिए पॉजिटिव माहौल बनाती है। महिलाओं से ही जुड़ी प्रॉब्लम्स को सेंटर में रखकर ‘क्वीन’,‘एनएच10’ जैसी फिल्में बनी है। इसी के साथ यह तथ्य भी सामने आया कि आज हमारा बॉलीवुड हीरोइन को सेंटर में रखकर फिल्में बना रहा है और उन्हें काफी इफेक्टिव रोल मिल रहे हैं।
वर्तमान में सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फिल्म ‘दंगल’ भी इसी की कड़ी है जो लड़कियों के खिलाफ भेदभाव का विरोध करती है और यह साबित करती है कि ‘छोरियां कभी छोरो से कम नहीं होती है।’ इस प्रकार फिल्में महिला सशक्तिकरण की दिशा में अहम रोल निभा रही हैं और सोसायटी में बदलाव का माध्यम बन रही हैं।
लेखक
डॉ. मनीषा शर्मा (इन्दौर)
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