आज़ाद भारत के ग़ुलाम
कोई आपसे पूछे कि आप आज़ादी और ग़ुलामी में किसे चुनना पंसद करेंगे तो ज़ाहिर सी बात है कि आप आज़ादी ही चुनेंगे अब अगर मैं ये कहूँ कि आप आज भी ग़ुलाम हैं तो आप क्या कहेंगे? आज़ाद भारत में इस तरह की बात आपको अटपटी लग सकती है लेकिन मैं ऐसा क्यूं कह रहा हूँ उसके पीछे एक बड़ी वजह है चलिए इसको समझने के लिए भगत सिंह के ऐतिहासिक बयान का वो हिस्सा पढ़ते हैं जिसमें उन्होंने क्रांति का मतलब बताया था।
( भगतसिंह – 6 जून, 1929 को दिल्ली के सेशन जज मि. लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में दिये गए बयान का एक हिस्सा।
” क्रान्ति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।
समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढंकने-भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूँजीपति जरा-जरा-सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं। )
इस बयान को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे आज भी भगत सिहं अपने साथियों के साथ उसी कटघरे में खड़े हैं और उस वर्ग के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं जो अभी भी हाशिए पर ही है जिसमें किसान, मज़दूर, बुनकर और दलित सभी शामिल हैं। आज़ादी के 70 साल बाद भी हालात जस के तस नज़र आते हैं। ज़्यादा दूर मत जाइए हाल ही में तमिलनाडु के किसानों ने कई अजीब तरीकों से विरोध प्रदर्शन कर सरकार से अपने हक़ की मांग की। उन लोगों ने नग्न प्रदर्शन से लेकर पेशाब तक पिया। ये सब देश की राजधानी में हुआ लेकिन नेताओं ने इस तरफ़ देखना तक ज़रुरी नहीं समझा। अभी तक उन्हें कोई ठोस राहत नहीं मिल पाई है।
आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं लेकिन कोई भी सरकार उनके लिए ऐसी कोई ठोस नीति नहीं ला सकी जिससे उनको राहत मिल सके। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार दोनों ही इस मामले पर फ़ेल नज़र आते हैं। देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है लेकिन उसी बड़े समुदाय के लिए हमारा सिस्टम बेकार नज़र आता है। हमारी सरकारें संपन्न वर्ग तक सिमट कर रह गई हैं। कॉरपोरेट हाउस, बड़े धन्ना सेठों के लिए सरकार आए दिन एक से बढ़कर एक ऑफ़र लेकर आती हैं जिनमें प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट से लेकर बड़े लोन तक शामिल हैं। वहीं देश का बड़ा हिस्सा अपनी बुनियादी ज़रुरतों के लिए जूझ रहा है।
जिस मक़सद से आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी, जिसके लिए ना जाने कितने क्रांतिकारयों ने अपनी जान दे दी, उस आज़ादी के मायने हम भूल चुके हैं। आज़ादी का मतलब बस अंग्रेज़ों से आज़ादी नहीं था ना ही इसका मतलब सत्ता हस्तांतरण से था। आज़ादी के व्यापक मायने थे जिसका सीधा – साधा मतलब था सभी को बराबर का हक़।
सभी को हक़ को दिलवाने के लिए ही हमारे राष्ट्रनिर्माताओं ने भारत के लिए लोकतंत्र और मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया था ताकि समाज के ज्यादातर लोगों को रोजग़ार और मूलभूत सुविधाएं मिल सकें, समाज में फैली असमानता दूर हो सके। इसी के चलते डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जैसी हस्ती ने कड़ी मेहनत और अथक प्रयास के बाद एक ऐसा संविधान बनाया था जो सभी को समानता का अधिकार देता है। उन्होंने इस बात का पूरा ख़याल रखा था कि शासन की ताक़त भारत की जनता के हाथों में रहे। सभी को बराबर का हक़ मिले लेकिन जब उन्होंने संविधान बनाया तब उन्होंने एक बात भी कही थी जिस पर ग़ौर करना ज़रुरी है।
(” मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था। ” )
यानि उनको इस बात का इल्म था कि अगर संविधान सही हाथों में नहीं रहा तो ये बेअसर भी हो सकता है। शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था को भारत के लिए चुना और लोगों को वोट देने का हक़ दिया। यहाँ पर और एक बात पर ध्यान देने की ज़रुरत है कि जब हमारा देश आज़ाद हुआ तब तक दुनिया दो विश्वयुध्द देख चुकी थी जिसमें हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाहों ने जमकर ख़ून-ख़राबा किया था। फ़ाइनल सॉल्यूशन के नाम पर हिटलर ने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया था। जातीय उन्माद में पागल हिटलर ने किस क़दर आतंक मचाया था उससे सभी वाक़िफ़ थे ।
ये भी एक बड़ी वजह रही जो हमारे देश को लोकतांत्रिक बनाया गया ताकि भविष्य में कोई तानाशाह सर ना उठा सके, लोग अपने वोट की ताक़त से देश की दशा और दिशा तय कर सकें। लेकिन आज देश की जनता अपनी असली ताक़त भूलकर अपने लिए नायक तलाशने लगी है। आज आप और हम वोटर ना होकर, आपिये, कांग्रेसी या फिर भक्त कहलाने लगे हैं। हमारे नेता आज जनसेवक की छवि से बाहर निकल कर सेलिब्रिटी बन चुके हैं जिनको हम सोशल मीडिया से लेकर रैली तक में फ़ॉलो करते हैं। हम एक जागरुक नागरिक़ की जगह एक फॉलोअर के क़िरदार में आ गए हैं। सोशल मीडिया पर हम अधकचरी या एकतरफ़ा जानकारी के सहारे एक दूसरे के फ़ेवरेट नेता को ट्रोल करने में लगे रहते हैं। आपस में लड़ते-गरियाते एक दूसरे को ग़लत साबित करने पर तुले रहते हैं। अब हम एक वोट बैंक की तरह हैं जिसको प्रोपेगैंडा फैलाकर आसानी से दिशाहीन किया जा सकता है।
हमारा देश लोकतांत्रिक क्यूँ है? हम लोगों को वोट का अधिकार क्यूँ मिला है? इन बातों की बारीक़ी जाने बग़ैर हम लोग बस वोट डालने वाली एक मशीन बन चुके हैं। अपने बुनियादी हक़ और ज़रूरी मुद्दों को छोड़कर उन बातों पर वोट देने लगे हैं जिनका हमारी तरक़्की से कोई लेना देना नहीं हैं जैसे कि जाति, धर्म, मसान, कब्रिस्तान, मंदिर और मस्ज़िद। इनमें से एक भी मुद्दा भारत की बुनियादी समस्याओं से जुड़ा नहीं है। मान लीजिए मंदिर या मस्जिद जो भी बने तो क्या हमारे देश से ग़रीबी, बेरोज़ग़ारी, बीमारी और भुखमरी दूर हो जाएगी या किसान, मज़दूरों को उनका हक़ मिल जाएगा? ऐसा कुछ नहीं होने वाला क्यूँकि मंदिर या मस्जिद इनका हल नहीं है।
ये वो समस्याऐं हैं जिनपर लगातार ईमानदारी से काम करने की ज़रूरत है। जिसमें विज्ञान, शिक्षा और कड़ी मेहनत ही हमारी मदद कर सकती है। अब वक़्त आ चुका है कि हम वोटर होने की असली ताक़त समझें। वोटर होने के नाते हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उन नेताओं को चुनें जो असल मुद्दों पर काम करने की नीयत रखता हो। अगर वो नेता अपने मकसद से भटके तो उसी वोट की ताक़त से हम उसे निकाल बाहर करें। हमें ये समझने की ज़रूरत है कि हमारा नेता क्या कह रहा है और उसके क्या इरादें हैं। क्या वो वाकई हमारी बुनियादी ज़रुरतों को पूरा करने की चाहत रखता है या सिर्फ़ गद्दी हासिल करने के लिए चुनावी जुमले छोड़ता है। हमारा वोट लोकतंत्र और हमारे देश के लिए होना चाहिए किसी नेता या तानाशाह के लिए नहीं वरना वो दिन दूर नहीं जब लोकतंत्र होने के बावजूद हम किसी तानाशाह के ग़ुलाम होंगे और हमारी आज़ादी बेमानी हो जाएगी फिर फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वो इंसान पप्पू है या फैंकू। हमें अपनी आज़ादी और लोकतंत्र को बचाने, आगे बढ़ाने की ज़रुरत है। उसके लिए हमें आगे आना होगा और समझना होगा कि देश के असली राजा नेता हैं या हम।
प्रेम सिंह
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