जावेद अख्तर चुप रहते तो बेहतर होता
जावेद अख्तर साहब जो नसीहत नसीरुद्दीन शाह साहब को करने की कोशिश में थे, वही सबक खुद भूल गये। अनर्गल प्रलाप कर बैठे जावेद साहब को अपने शब्दों के प्रति सचेत रहना चाहिए था। वैसे भी, जावेद साहब गंभीर टिप्पणियों के लिए कभी मशहूर नहीं रहे। इसलिए बेहतर था कि वे राजेश खन्ना पर नसीर साहब के बयान से पैदा हुई हलचल में हिस्सा न ही लेते। नसीर साहब ने जो कहा, उसका मर्म जावेद साहब नहीं समझे होंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता, लेकिन फिर भी कुछ वजहें थीं कि राजेश खन्ना की हिमायत करने के लिए जावेद साहब खुद को रोक नहीं पाये और नसीर साहब पर तंज़ कसने को मजबूर हो गये।
जावेद साहब के प्रलाप के कुछ कारण हालिया दिनों में हैं और कुछ अतीत में भी। वास्तव में, इससे पहले नसीर साहब ने एक बयान में कह दिया था कि भाग मिल्खा भाग देखकर उन्हें फरहान अख्तर में मिल्खा सिंह का किरदार जंचा नहीं, यानी मिल्खा के अवतार में फरहान उन्हें पसंद नहीं आये। तो यह एक वजह हो सकती है कि पिता को जैसे ही मौका मिला, तो उन्होंने पलटवार करने की कोशिश की। बहरहाल, राजेश खन्ना पर जो नसीर साहब ने कहा उसे एक बार यहां भी पढ़ लें –
“बॉलीवुड फिल्मों के 70 के दशक में औसत रहने का एक कारण राजेश खन्ना थे।“
इस बयान में दो पहलू हैं। एक 70 के दशक की बॉलीवुड फिल्में औसत थीं और दूसरा यह कि राजेश खन्ना को औसत अभिनय क्षमता के बावजूद जो स्टारडम मिला, उससे फिल्मों की गुणवत्ता पर भी असर पड़ा। राजेश खन्ना की सुपरस्टार इमेज को कोई क्षति न पहुंचाते हुए कला के नज़रिये से अगर साफगोई से बयान दिया जाये तो नसीर साहब ने बेहद सटीक बयान दिया है। यहां गौरतलब यह भी है कि नसीर साहब ने बॉलीवुड फिल्में कहकर उन फिल्मों पर कोई इल्ज़ाम नहीं लगाया, जो समानांतर सिनेमा या कला फिल्मों की श्रेणी में रखी जाती हैं। नसीर साहब का बयान पूरी गंभीरता, उचित शब्दावली और एक बेबाक राय लिये हुए है, इसमें दोराय नहीं है।
जावेद अख्तर ने प्रतिक्रिया में कहा कि “शाह को सफल लोग पसंद नहीं हैं इसलिए वे ऐसे बयान देते हैं।“
यह जावेद साहब की खीझ ही दिखती है। नसीर साहब का बयान फिल्मों को लेकर है और उसके एक पहलू के रूप में एक कलाकार का ज़िक्र है जबकि जावेद साहब का बयान सीधे तौर पर व्यक्तिगत आक्षेप है। दोनों कलाकारों की भाषा और सोच का फर्क भी यहां साफ दिख जाता है। स्पष्ट है कि 70 के दशक में सबसे मशहूर बॉलीवुड फिल्में सलीम-जावेद की जोड़ी ने लिखी थीं। ऐसे में, जावेद साहब की नाराज़गी गलत नहीं थी क्योंकि एक तरह से 70 के दशक की बॉलीवुड फिल्मों के औसत रहने का एक कारण सलीम-जावेद को भी कहा जा सकता है। नसीर साहब ने कम शब्दों में बहुत से निशानों पर तीर मारा है, इसलिए जितने घायल हुए हैं सभी छटपटा रहे हैं।
सत्तर के दशक की बॉलीवुड फिल्मों का ज़िक्र हुआ है, तो कुछ लक्षण विशेष दोहरा लेते हैं। इस दशक की फिल्मों में स्टारडम हावी रहा। सितारे अपनी अदाकारी से ज़्यादा अपनी छवि और स्टाइल को भुनाते दिखे। कहानियां, पटकथाएं, संवाद आदि पूर्ववर्ती हिंदी फिल्मों या अन्य भाषाओं की फिल्मों से बेहद प्रभावित या लगभग नकल होने लगे। फॉर्मूला फिल्मों की बाढ़ आयी। सलीम-जावेद लिखित शोले एक अंग्रेज़ी फिल्म से प्रेरित थी तो उन्हीं की लिखी दीवार पूर्ववर्ती फिल्म गंगा-जमुना का उस समय में आधुनिक संस्करण था। दीवार के संवादों में कहीं मुगल-ए-आज़म तो कहीं गंगा जमुना तो कहीं अन्य फिल्मों के संवादों की झलक दिखती है।
यह भी दिलचस्प है कि आराधना को 70 के दशक की शुरुआत या पूर्वपीठिका के तौर पर देखा जाये तो राजेश खन्ना का स्टारडम यहां से शुरू होता है और केवल 5-6 सालों में उनकी चमक फीकी पड़ जाती है। क्योंकि, 73 में ज़ंजीर और 75 में शोले व दीवार की सफलता के बाद यह खिताब और दौर अमिताभ बच्चन के नाम हो जाता है। वैसे भी, राजेश खन्ना की बेहतर अभिनय प्रतिभा से संपन्न फिल्में छांटी जाएं तो बमुश्किल आधा दर्जन फिल्मों के नाम ही अंतिम सूची में जगह बना पाएंगे। खन्ना साहब की शेष फिल्में व्यावसायिक रूप से जैसी भी रही हों, कला और खासकर उनके अभिनय के नज़रिये से औसत या उससे कमतर प्रतीत होती हैं।
अपने बयान के बाद कुछ कलाकारों द्वारा ली गई आपत्ति के बाद नसीर साहब ने उनसे माफी मांगने के बाद यह भी कहा कि खन्ना के परिजनों को दुख हुआ, इसके लिए माफी मांगी है लेकिन अपने बयान पर वह कायम हैं। साथ ही, उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि लेखन और निर्माण व निर्देशन के स्तर पर 70 के दशक की तथाकथित व्यावसायिक फिल्में औसत रहीं। तमाम आपत्तियों के बाद और खुलकर नसीर साहब ने अपने पिछले बयान का स्पष्टीकरण दिया और कुछ महत्वपूर्ण बिंदु उठाये। बतौर नसीर साहब 70 के दशक में साहित्यिक चोरी की शुरुआत हुई, दूसरे बॉलीवुड का स्वभाव अवसरवादिता का रहा इसलिए राजेश खन्ना की लोकप्रियता को भुनाने के बाद उन्हें बॉलीवुड ने दूर फेंक दिया और तीसरे यह कि खन्ना के जीवित रहते बॉलीवुड ने उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया।
बाज़ार की मांग बनाने और उसके पूरा करने के स्वभाव को खतरनाक माना जाना चाहिए। यह हमारे फिल्म उद्योग का घिनौना और कड़वा सच है कि ऐसा कई बार किया गया है। चोरी को तरह-तरह के नाम देकर एक आम और स्वीकार्य घटना मान लिया गया है। फिर वह संगीत की चोरी रही हो या साहित्य की। कलाकारों को इस्तेमाल करने और बाद में उन्हें भूल जाना भी फिल्म उद्योग के उद्योगपतियों की करतूत रही है। यही कारण था कि राजेश खन्ना अपने अंतिम दिनेां में दो-एक बी ग्रेड फिल्मों में नज़र आये। उन्हें अपनी संपत्ति बेचना पड़ी। अगर हिन्दी फिल्मों के पहले सुपरस्टार को ऐसा समय देखना पड़ सकता है तो फिल्म उद्योग के चरित्र व स्वभाव पर यह बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न है।
इस बीच सलीम साहब ने भी नसीर साहब के पिछले बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कह दिया था कि जितनी भीड़ सलमान के घर के आगे लगी रहती है, उससे कहीं ज़्यादा खन्ना के घर के आगे होती थी, उनकी एक झलक के इतने दीवाने थे। यह राजेश खन्ना के औसत अभिनेता और 70 के दशक की फिल्मों के औसत होने को किस तरह नकारने वाला प्रमाण है, यह तो सलीम साहब ही जानते हैं। नसीर साहब ने भी उनसे यही सवाल किया है कि घर के आगे भीड़ लगने से किसी कलाकार की महानता कैसे सिद्ध की जा सकती है।
तो, यह सिद्ध हो जाता है कि बॉलीवुड फिल्मों के 70 के दशक और राजेश खन्ना पर नसीर साहब की टिप्पणी किसी भी तरह से आलोचना का विषय नहीं है। यह एक ऐसा सच है, जिसे सार्वजनिक रूप से कहने से फिल्म जगत कतराता है, बचता है, आंखें चुराता है। मानते सभी हैं, जानते भी सभी हैं, लेकिन बस यही है कि खुलकर कहना क्यों। नसीर साहब के बयान की आलोचना करने जितने भी लोग सामने आए हैं, उनकी तकलीफ यही हो सकती है कि यह सबके सामने बोल क्यों दिया।
जावेद साहब की प्रतिक्रिया में एक शब्द और आपत्तिजनक है, सफल। जावेद साहब को स्पष्ट करना चाहिए कि सफल लोग कौन हैं या किस परिभाषा के तहत वह किसी को सफल मानते हैं। नसीर साहब अपने कई इंटरव्यूज़ में, बयानों में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलाणी, गुरुदत्त जैसे फिल्मकारों और ओम पुरी, स्मिता पाटिल जैसे कई कलाकारों की तारीफ कर चुके हैं। क्या जावेद साहब की नज़र में ये कलाकार सफल नहीं हैं? क्या जावेद साहब उन्हीं को सफल मानते हैं जो आर्थिक रूप से समृद्ध हैं या व्यावसायिक रूप से प्रतिष्ठित हैं? क्या जावेद साहब कला के क्षेत्र में प्रतिष्ठा हासिल करने वालों और कला को नये आयाम देने वालों को व्यावसायिक रूप से समृद्ध न होने के कारण सफल नहीं मानते?
यह फर्क सोच का है। जावेद साहब क्या मानते हैं, उसके पीछे उनके अपने कारण हैं। नसीर साहब क्या समझते हैं, उसके पीछे उनकी अपनी पृष्ठभूमि है। इसलिए मैंने पहले कहा कि जावेद साहब समझदारी से काम लेते और इस मामले से खुद को दूर रखते तो बेहतर होता। नसीर साहब और उनकी पृष्ठभूमि, सोच और योगदान किसी स्तर पर मेल नहीं खाता इसलिए वे दो सिरों पर ही रहेंगे। यह समझने या यह स्वीकार करने में जावेद साहब को अभी बहुत समय लगेगा कि हर कलाकार का मकसद पैसा कमाना नहीं होता, कलात्मक गुणवत्ता में निरंतर निखार लाना, कला जगत में योगदान करना जैसे ध्येय भी किसी कलाकार के हो सकते हैं और उन्हें पूर्ण या प्राप्त कर वह सफल भी हो सकता है।
कुछ दिनों पहले आजकल के संजीदा अभिनेता इरफ़ान खान ने एक कार्यक्रम में कहा था कि हमने नायक यानी हीरो को उचित ढंग से परिभाषित नहीं किया। एक फिल्म स्टार अगर देश की नयी पीढ़ी का हीरो होता है, तो यह दुखद है। उपरोक्त प्रसंग में यह बयान बहुत कुछ कहता है। जावेद साहब जिस राह पर चले, उस राह के फिल्म लेखकों ने समाज को किस तरह के नायक का आदर्श दिया, यह अलग बहस का विषय है लेकिन इसी तरह के लेखकों ने समाज के हीरो का चेहरा बदल दिया। अंजाम यह कि इरफ़ान को ऐसा कहना पड़ा।
इरफ़ान के बयान की संजीदगी और सीधे चोट न करने की शब्दावली ने जावेद साहब को नहीं उकसाया, इसलिए इस विचार पर जावेद साहब न तो कोई प्रतिक्रिया लेकर आये और न ही अपना कोई मत। 5-6 साल पहले एक प्रकरण आया था फिल्मों के लाभ में हिस्सेदारी का, तब जावेद साहब ने यह ज़रूर कहा था कि फिल्म लेखक को बतौर फीस फिल्म से होने वाले लाभ में हिस्सा दिया जाना चाहिए। कुल मिलाकर जावेद साहब को एक व्यावसायिक लेखक कहने से मुझे कोई परहेज़ नहीं है। उनकी सोच में व्यवसाय भीतर तक घर किये हुए है। उन्हें कला संबंधी बयानों के मामले से दूर रहना चाहिए, क्योंकि वह एक अलग दुनिया है, जहां उनका कोई दखल या स्थान नहीं है।