जानें आखिर क्या है रामजन्म भूमि विवाद
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6 दिसंबर, 1992 कि वो तारीख है जिसने उत्तर प्रदेश के अयोध्या का इतिहास ही नहीं बल्कि भूगोल बदल कर रख दिया। प्रदेश के इतिहास और भूगोल के साथ यहां का सामाजिक ताना बाना ङी बदल गया। हर साल 6 दिसबंर के आस पास राम की नगरी आयोध्या थम सी जाती है। जैसे मानो की इस पूरे इलाके में इमरजेन्सी लग जाती है। पूरे शहर में एक सन्नाटा सा पसर जाता है. हर घर के दरवाजे पर किसी अनहोनी के होने की आशंका दस्तक देने लगती है कि न जाने क्या हो जाए सब एक दूसरे से बस यही सवाल पूछते हैं कि इस वर्ष काश कुछ गड़बड़ न हो जाए।
जी हां यह एक कहानी नहीं बल्कि एक हकीकत की दांस्ता हैं। राम मंदिर और बाबरी मस्जिद मुद्दे को लेकर अभी विवाद थमा नहीं हैं। इसी बीच बाबरी मस्जिद के पैरोकार मोहम्मद हाशिम अंसारी का निधन हो गया। हाशिम असंरी इन पूरे मुद्दो के अहम गवाह थे। जो वह कई दशकों से इसकी लड़ाई लड़ रहे थे। लेकिन अब उनके निधन के बाद माना जा रहा है कि चल रहे मुकदमें पर असर पड़ेगा।
कौन हैं हाशिम अंसारी, जिसने बाबरी मस्जिद के पैरोकारी कि जिम्मेदारी अपने सर पर ली
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में रहने वाले हाशिम अंसारी उस समय मशहूर हुए थे जब उन्होंने ढाई दशक पहले बाबरी मस्जिद गिराए जाने के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी और कोर्ट पहुंचे थे. हाशिम अंसारी तब से लगातार यह केस लड़ रहे थे. खास बात यह है कि यह पूरा केस वे अपने दम पर लड़ रहे थे. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जब पांच साल पहले राम लल्ला और बाबरी मस्जिद के लिए जमीन बांटने की बात कही थी, तब भी हाशिम चर्चा में आए थे. बाबरी केस अब भी सुप्रीम कोर्ट में है।
रामलला मुकदमें के थे अहम गवाह
हाशिम अंसारी 22-23 दिसंबर, 1949 को अयोध्या अधिगृहित परिसर में प्रकट हुए रामलला के मुकदमे में गवाह थे। हाशिम अंसारी 1950 से बाबरी मस्जिद की पैरवी कर रहे थे। हाशिम अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा बचे हुए लोगों में से थे। जो लगातार 60 वर्षों से ज्यादा अपने धर्म और बाबरी मस्जिद के लिए संविधान और क़ानून के दायरे में रहते हुए अदालती लड़ाई लड़ रहे थे।
मुद्दे के राजनीतिकरण,राजनीतिक हस्तक्षेप से जताई थी नाराजगी
राम मंदिर और बाबरी मस्जिद का मुद्दा हुये लगभग ढ़ाई दशक का वक्त बीत गया है। इन मुद्दो पर राजनीति पार्टीयां अपनी रोटी सेंकने से बाज नहीं आ रही थी। जिसको लेकर 2014 राजनीतिकरण के चलते हाशिम अंसारी नाराज हो गये थे। और उन्होने बाबरी मस्जिद के मुकदमें की पैरवी करने से साफ इंकार कर दिया। और हाशिम अंसारी ने 6 दिसम्बर को मनाए जाने वाले काले दिवस कार्यक्रम में शामिल होने से साफ इंकार कर दिया। जिससे बाबरी मस्जिद की पैरवी के लिये बनी एक्शन कमेटी में सन्नाटा छा गया। हाशिम अंसारी का मानना था कि मुकदमा हम लड़े और फायदा राजनीतिक लोग ले जाएं। जिसके चलते उन्होने मुकदमें की पैरवी करने से इंकार कर दिया था। लेकिन बाद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी के मनाने पर वो दुबारा पैरवी करने पर राजी हुये।
मोदी को पसन्द करते थे हाशिम अंसारी
हाशिम अंसारी हमेशा से नरेन्द्र मोदी के मुदीर रहे हैं। और वह नरेन्द्र मोदी को काफी पसन्द करते थे। हालांकि इसके लिये हाशिम अंसारी ने मुस्लिम समुदाय से अपील की थी कि वह मोदी को सपोर्ट करें।
करोड़ो की पेशकश को ठुकरा दिया था हाशिम अंसारी ने
6 दिसंबर 1992 की घटना आज प्रदेश के लोगो के जहन में बसा है। उस दिन बलवे में बाहर से आए दंगाइयों ने हाशिम अंसारी का घर जला दिया था। लेकिन अयोध्या के हिंदुओं ने उन्हें और उनके परिवार को बचाया था। जिसके बाद हाशिम अंसारी को कुछ मुआवजा मिला। जिसके बाद उन्होने एक घर बनाया। हाशिम अंसारी कहा करते थे कि उन्होंने बाबरी मस्जिद की पैरवी कभी राजनीतिक फायदे के लिए नहीं की थी। लोगो का मानना है कि 6 दिसंबर,1992 की घटना के बाद एक बड़े नेता ने उनको दो करोड़ रुपए और पेट्रोल पम्प देने की पेशकश की तो हाशिम ने न केवल ठुकरा दिया। हाशिम अंसारी इस मुद्दे को मिलकर सुलझाना चाहते थे।
मुकदमें पर पड़ेगा असर
हाशिम अंसारी के न रहने से बाबरी मस्जिद के पैरोकारी पर काफी असर दिखेगा। क्योकि अयोध्या मामले में मुस्लिम पक्ष की पैरवी करते हुए एक वक्त ऐसा भी आया था जब हाशिम ने इस मामले की पैरवी करने से इंकार कर दिया था। साल 2014 में अयोध्या बाबरी मस्जिद के मुख्य पक्षकार मोहम्मद हाशिम अंसारी बाबरी मस्जिद मुद्दे के राजनीतिकरण से इतने नाराज हुए थे कि उन्होंने बाबरी मस्जिद के मुक़दमे की पैरवी ना करने का फैसला कर लिया था. लेकिन बाद में सभी के मनाने पर वह मान गये थे। हाशिम अंसारी इस पूरे वाक्यों के अहम गवाह माने जाते थे। तो अब उनके नही होने से माना जा रहा है कि बाबरी मस्जिद के पैरोकारी पर काफी असर पड़ेगा।
यूपी चुनाव में राजनीति पार्टीयां इस मुद्दे को जोर शोर से उठाने में लगे हैं
जाहिर है उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनाव होने है और इसके ठीक दो साल बाद देश में लोकसभा के चुनाव होंगे. ऐसे में राम मंदिर का मुद्दा एक फिर राजनीतिक अखाड़े का सबसे बड़ा दांव बने तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है. वैसे भी पिछले पच्चीस सालों से इस मुद्दे ने किसी राजनीतिक पार्टी की तकदीर संवारी तो किसी की बिगड़ी भी है. राम की नगरी अयोध्या. अयोध्या की ये जमीन किसकी है इस पर करीब साढे चार सौ साल से विवाद है. आखिर अयोध्या की ये विवादित ज़मीन किसकी है। 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया. हाईकोर्ट ने ज़मीन को तीन हिस्सों में बांट दिया. दो तिहाई हिस्सा हिन्दू पक्ष को मिला और एक तिहाई सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को. हालांकि, कोई भी पक्ष इस फैसले से संतुष्ट नहीं हुआ, और ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
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