असहमत होना सीखें, समाज को पागल होने से बचाएं
[avatar user=”bhavesh” size=”thumbnail” align=”left” /]
संभवतः भारत में इस बरस सबसे अधिक चर्चित शब्द रहा असहिष्णुता। इस शब्द के इर्द-गिर्द अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जुमला भी घूमता रहा। पूरे बरस पर नज़र डालें तो यह शब्द कर्णाटक निवासी लेखक कालबुर्गी की हत्या के बाद चर्चा में आया। फिर दादरी कांड, गोमांस को लेकर छिड़ी बहस, लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिकों द्वारा पुरस्कार वापसी, गुलाम अली के कार्यक्रम पर महाराष्ट्र में रोक, पाकिस्तानी मंत्री की किताब के विमोचन पर आयोजक के साथ बदसलूकी, अभिनेताओं के बयानों पर बवाल, गिरीश कर्नाड के बयानों का विरोध और उन्हें दी गईं धमकियों, प्रधानमंत्री की चुप्पी पर उठे सवालों आदि के बीच यह शब्द असहिष्णुता लगातार विमर्श, और चर्चाओं के केंद्र में बना रहा। पिछले ही दिनों आमिर खान के बयान पर विवाद और सरकारी नीतियों के विरोध में गीत रचे जाने पर तमिलनाडु के लोक गायक पर देशद्रोह का मुकदमा चलाये जाने की घटनाओं ने भी इस शब्द को हवा दी।
शायद आपको भी मेरी तरह ताज्जुब हो कि अचानक इस साल यह शब्द विचार के केंद्र में क्यों इस कदर उथल-पुथल मचाता रहा। हमने पढ़ा-सुना है कि इमरजेंसी के समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक केंद्र विचार या बहस का केंद्रीय मुद्दा बना था। यानी तकरीबन चालीस साल बाद यह विचार इस वर्ष फिर इतना अधिक चर्चा में रहा। अभी कुछ ही रोज़ पहले पूर्व मंत्री चिदंबरम ने यह कहकर फिर बहस तेज़ कर दी कि 80 के दशक के अंत में सलमान रश्दी की किताब को प्रतिबंधित किया जाना गलत था। इन तमाम बयानों और घटनाक्रम के बीच एक हादसा यह हुआ कि असहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर मूल पर बहस नहीं हुई या यों कहिए कि पूर्वाग्रहों या अपने-अपने विश्वासों, मतों के आधार पर ही न केवल लोक बल्कि विद्वानों ने इस पर अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं। जिसका प्रचार तंत्र जितना मज़बूत रहा, उसकी उतनी ज़्यादा बात सुनी गई। श्री विजय वाते का एक सटीक शेर याद आता है –
तुम्हारे पास है डायस तुम्हारे पास है माइक
तुम्हारा शोर ज़्यादा है ये मेरा हो नहीं सकता
इन मुद्दों को लेकर राजनीतिक, कलाकार, लेखक, मीडिया, परिवार, पान व चाय की गुमठियों पर रोज़ाना साथ होने वाले, सभी जैसे दो खेमों में बंटे दिखे। अक्सर यही दिखा कि इन बहसों में एक पक्ष बहरा है और दूसरा शोर मचा रहा है। एक बहुत छोटा सा वर्ग तटस्थ रहा या शायद अपनी वैचारिकता के दंभ में इस बहस से दूर रहा कि ऐसा तो होता ही रहता है। और यह वर्ग हमेशा रहा है। जो बहसों में, विरोधों में या फिर तर्कों में उलझता नहीं। सुरक्षित महसूस करता है कुछ न कहकर। या शायद कहीं असुरक्षित महसूस करता है खुद को उजागर करने से। जो भी हो, इन मुद्दों पर बहस सार्थक हो नहीं सकी। हवा-हवाई बातें या फिर सुर्खियों में आने की व्यक्तिगत इच्छाएं या फिर उथली वैचारिकता या शायद कड़वे सच को स्वीकार न करने की प्रवृत्ति के कारण ही इस मुद्दे के पीछे की सच्चाई खुलकर न तो रखी गई और न ही रखने दी गई।
तो, पहले ज़िक्र करें अभिव्यक्ति की आज़ादी का। यह क्या है – यह आवाज़ है। माना जाता रहा है कि जिस देश में लोक की आवाज़ को दबाया गया वह न तो स्वस्थ कहलाया, न विकसित हुआ और न ही सम्मानित। उसने लोक के विद्रोह का विस्फोट झेला। यह विचार आवाज़ को न दबाने की नीति का एक मसौदा है। इसका साधारण नमूना आप और हम अक्सर अपने शहर में होने वाले धरनों, प्रदर्शनों, रैलियों व सभाओं में देखा करते हैं। राजनीति या सत्ता या किसी वर्ग विशेष के खिलाफ जो आवाज़ मुखर होती है, उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी के चोले में दर्शाया जाता है। लेखकों, कलाकारों और पत्रकारों को इसका अगुवा माना जाता रहा है। समझा जाता रहा है कि ये वर्ग समाज की दबी कुचली या डर के कारण न ज़ाहिर हो पाने वाली भावनाओं को पुरज़ोर ढंग से व्यक्त करते हैं। इन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी का नायक या संवाहक माना जाता है। इन पर किसी किस्म का प्रतिबंध या पाबंदी समाज की अभिव्यक्ति पर हमला माना जाता रहा है।
यह क्यों है और किस हद तक है – यह अधिकार या स्वतंत्रता इसलिए ज़रूरी है ताकि गलत को गलत और सही को सही के रूप में प्रचारित किया जा सके। जन-जन को जागरूक किया जा सके और समाज व देश को एक सेहतमंद सोच के साथ उचित दिशा दी जा सके। यह अधिकार भी अन्य अधिकारों की तरह सीमाओं में ही मिलना चाहिए। हद ज़रूरी है। एक अंग्रेज़ी कहावत प्रचलित है कि मेरी नाक पर आपकी आज़ादी खत्म होती है। आपके बोलने की आज़ादी किसी और की आवाज़ दबाने का हथियार नहीं हो सकती। आप अनर्गल, झूठ या भड़काने वाले प्रलाप इस आज़ादी के नाम पर नहीं कर सकते। करना चाहिए भी नहीं।
यह तो प्रारूप हुआ। अब देखें कि होता क्या है या हो रहा क्या है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरुपयोग तब होता है जब प्रदूषणों को वैचारिकता में स्थान दिया जाता है। सांप्रदायिकता, राजनैतिक लाभ-हानि, वर्चस्व की महत्वाकांक्षा आदि कुछ ऐसे प्रदूषण हैं जो इस आज़ादी का दुरुपयोग होने के कारण बनते हैं। एक वर्ग अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर दूसरे वर्ग को ठेस पहुंचाए, उसके अधिकारों का हनन करे या फिर उसे प्रताड़ित करे तो यह जायज़ नहीं होना चाहिए। लेकिन, दुर्भाय से होता अक्सर यही है। यहां भी वर्गभेद है। सत्ता संपन्न के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमाएं बहुत फैली हुई हैं और कमज़ोर के लिए यह आज़ादी बहुत संकुचित है। एक लेखक कुछ कहता है तो उसे गोली मार दी जाती है। सामाजिक मंचों पर उसे हत्या तक की धमकियां दी जाती हैं। ऐसे में न्याय व्यवस्था और शासन की चुप्पी हो तो संकट दोगुना बढ़ जाता है। है तो भारतीय दर्शन का ही विचार लेकिन वॉल्टेयर के नाम से अधिक प्रचलित हुआ है – मैं आपसे असहमत होते हुए भी अभिव्यक्ति की आपकी स्वतंत्रता का हनन नहीं कर सकता।
इस असहमति को बरकरार रखना और इसके साथ जीना सिखाना और सीखना हम छोड़ चुके हैं। असहमत होते हुए भी दो पक्ष सही हो सकते हैं। असहमति और विरोध में अंतर है। असहमत होने का अर्थ हिंसा करना नहीं है। शारीरिक या वाचिक किसी भी प्रकार की हिंसा का विमर्श में कोई स्थान नहीं है। वैचारिक रूप से असहमत होना अभिव्यक्ति के अधिकार से अधिक महत्वपूर्ण अधिकार है जो मिलना चाहिए। ये तमाम बातें न तो परिवार में शेष रह गई हैं, न समाज में, न शिक्षा में और न ही व्यवस्था में। यही कारण है कि हम अभिव्यक्ति की आज़ादी के संकटों को झेल रहे हैं। श्री यतींद्रनाथ राही रचित एक दोहा सिर्फ पढ़िए
मत, सोचिए –
जो कुछ देखा नैन ने अधर न पाये बोल
इसीलिए अभिव्यक्ति के उत्तर गोल-मटोल।
अभिव्यक्ति के नाम पर हो रही बेजा कसरत को यह दोहा अपने व्यंग्य में ऐसे पकड़ता है जैसे दुखती रग पर हाथ रख दिया गया हो। अपने पूर्वाग्रहों, आसक्तियों, निष्ठाओं और खोखले समर्थनों के मद में कुछ भी कह देना अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का मज़ाक बनाना ही है। आप अपनी अनुभूतियों को सच्चाई के साथ अभिव्यक्त करें, षडयंत्र के साथ नहीं। अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने वाले षडयंत्रों के प्रति सचेत भी रहें। और, अभिव्यक्त वही करें, उतना ही करें जो और जितना करना ज़रूरी हो, सार्थक हो।
असहमति के रास्ते बंद कर देना असहिष्णु होना है। भारत में जो नारा लंबे समय से ज़िंदाबाद रहा, अनेकता में एकता, उसने असहिष्णुता की आग पकड़ ली तो ज़रा सोचिए कि भारत में क्या बचेगा। अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा से समाज गूंगा होने से बचता है और असहमत होने के अधिकार की रक्षा से समाज पागल होने से बचता है। असहिष्णुता के प्रति असहिष्णुता बरतने से कुछ हासिल नहीं। सोच-समझकर सही नतीजे पर पहुंचने की ज़िम्मेदारी उन सभी को लेना चाहिए जो समझते हैं कि दायित्वों के निर्वहन के साथ ही अधिकार मिला करते हैं। हाल में हमारे राष्ट्रपति जी ने जो भाषण दिया है वह स्वागत योग्य है। गलियों में गंदगी दूर करने से ज़्यादा ज़रूरी है कि दिमागी गंदगी को दूर करें। चरित्र को प्रदूषण से बचाएं और स्वच्छ राष्ट्र के निर्माण में सही भूमिका निभाएं।
- - Advertisement - -