ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता से टारगेटेड जर्नलिज्म
‘ठोंक दो’ पत्रकारिता का ध्येय वाक्य रहा है और आज मीडिया के दौर में ‘काम लगा दो’ ध्येय वाक्य बन चुका है। ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता से टारगेटेड जर्नलिज्म का यह बदला हुआ स्वरूप हम देख रहे हैं। कदाचित पत्रकारिता से परे हटकर हम प्रोफेशन की तरफ आगे बढ़ चुके हैं जहां उद्देश्य तय है, ध्येय तो गुमनाम हो चुका है। इस बदलाव का परिणाम है कि हम अपने ही देश मेें अभिव्यक्ति की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हम भूल जाते हैं कि पराधीन भारत में हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गोरे शासकों ने नहीं दी थी और उनसे जो बन पड़ा, वह हम पर नियंत्रण करने की कोशिश करते रहे लेकिन पत्रकारिता के हमारे पुरोधाओं ने उनकी परवाह किए बिना ‘ठोंकते’ रहे और वे बेबस रह गए। आज ऐसा क्या हुआ कि हम संविधान में उल्लेखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बावजूद बेबस हैं? सवाल यह नहीं है कि हमें अभिव्यक्ति की आजादी है कि नहीं। सवाल यह है कि हमने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वच्छंदता मान लिया और उसका बेजा उपयोग करने लगे। जब स्वतंत्रता का अर्थ बदल कर स्वछंदता हो जाए तो यह स्थिति आनी ही है।
भारत में हिन्दी पत्रकारिता का उदयकाल 30 मई 1826 को माना जाता है। इस दिन साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन आरंभ हुआ था। इसके बाद आहिस्ता-आहिस्ता देश के कोने कोने से समाचारपत्र एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह वह समय था जब प्रकाशन व्यवसाय नहीं था। पत्रकारिता मिशन थी और यही मिशन ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता कहलाती थी। तब प्रकाशनों के समक्ष सर्वजन सुखाय, सर्वजनहिताय प्रमुख होता था। प्रकाशनों से आय अर्जित करना लक्ष्य नहीं था बल्कि तब घर फूंक तमाशा देखा जाता था। एक कमिटमेंट के साथ पत्रकारिता होती थी। यह परम्परा भारत के स्वाधीन होने के बाद भी बनी रही। अब भारत की पत्रकारिता के समक्ष नव-भारत के निर्माण का लक्ष्य था। चुनौती यह थी कि अब अपने ही लोगों के खिलाफ लडऩा है। उनकी कमियां बतानी है और उन्हें सजग और सचेत करना है। यह जवाबदारी भी एक परम्परा के रूप में पूरी हो रही थी क्योंकि आजादी के जंग में जिन्होंने अपना सर्वस्व स्वाहा किया था, वह सोने की चिडिय़ा कहलाने वाले भारत को उसका गौरव, उसका अभिमान लौटाने के लिए बेताब थे। इस बात से भी इंकार नहीं कि उस दौर में प्रतिबद्ध पत्रकारों की फौज थी तो उनका सम्मान करने वाले राजनेताओं की संख्या भी बड़ी थी। दोनों के मध्य समझ और सामजंस्य से पत्रकारिता लगातार परवान चढ़ रही थी। हैरानी की बात यह है कि तब पत्रकारिता को अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सत्ता और शासन से लडऩा नहीं पड़ा। पत्रकारिता को लिखने की पूर्ण स्वतंत्रता थी बल्कि कई बार तो ऐसी रिपोर्ट और लेखों पर सरकार और सत्ता की तरफ से हौसला बढ़ाया जाता था। दोनों पक्षों को यह पता था कि जो लिखा जा रहा है, वह लक्ष्यभेदी नहीं है बल्कि ध्येनिष्ठ है और समाज की शुचिता के लिए है।
यह वह समय था जब अखबार को समाज का दर्पण माना गया और सत्ता-शासकों ने पत्रकारिता को समाज का चौथा स्तंभ कहा। भारत में ही पत्रकारिता की इस महत्ता को समझा गया था क्योंकि भारत की ही पत्रकारिता ने अंंग्रेजों को भारत छोडऩे के लिए मजबूर किया और असंख्य भारतवासियों को शब्द से जगाने का कार्य किया। जो पत्रकारिता कल तक भारत का चौथा स्तंभ थी और आज क्या हुआ कि वह स्वयं की स्वतंत्रता के लिए बेबस हो गई है? क्या देश के तीन और स्तंभ ने भी कभी अपनी स्वतंत्रता के लिए गुहार लगायी है? तब जवाब ना में होगा और कुतर्क के तौर पर दलील दी जाएगी कि शेष तीन स्तंभ संवैधानिक हैं। बात कुछ हद तक गलत नहीं है लेकिन पूरी तरह सही भी नहीं है क्योंकि जिस पत्रकारिता में राजसत्ता बदलने की ताकत हो, वह पत्रकारिता स्वयं की स्वतंत्रता को कायम ना रख पाए तो अनेक सवाल खड़े होते हैं। जैसा कि पहले ही कहा गया कि स्वतंत्रता और स्वछंदता में महीन सा अंतर होता है। स्वतंत्रता का अर्थ अनुशासन से है जबकि स्वच्छंदता का अर्थ अनुशासनहीनता से। कोई गुरेज नहीं कि हमने स्वतंत्रता का अर्थ ही बदल दिया है और स्वच्छंदता के लिए लड़ रहे हैं। यह स्थिति दुर्भाग्यजनक क्योंकि जो पत्रकारिता समाज का दर्पण हो, समाज आज उसे अपना चेहरा देखने के लिए कह रही है।
भारतीय पत्रकारिता के बीते तीन दशक के दौर को छोड़ दें तो पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर कोई सवाल नहीं उठा। उल्टे जब तब अवसर आया तो हर बार छपी खबरों का हवाला देकर प्रमाणित करने की कोशिश की गई। अखबारों का उल्लेख तो इस तरह होता है जिस तरह किसी धार्मिक ग्रंथ को साक्ष्य मानकर बोला जाता है। इतनी विश्वसनीयता समाज के दूसरे किसी सेक्टर पर कभी नहीं रहा। आज भी हम पत्रकारिता के संक्रमणकाल से गुजर रहे हैं और बार-बार पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगने के बाद भी भरोसा अभी पूरी तरह टूटा नहीं है। जब समाज का हम पर इतना भरोसा है तो फिर क्या कुछ हुआ कि हम बेबस हो गए हैं? इस बेबसी के बरक्स हमें आत्मचिंतन करना होगा। आखिर हमारी चूक कहां हुई और शायद कर रहे हैं।
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