Exclusive: क्यों रोक दी उड़ता पंजाब
हालिया विधानसभा चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी ने कहा कि वह कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की कोशिश में है। इधर, विश्व हिन्दू परिषद की साध्वी प्राची ने हरिद्वार में कहा कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को मुस्लिम मुक्त प्रदेश बनाया जाएगा और इसके लिए अभियान चलाने की तैयारी हो रही है। ज़रूरत किस बात की है? भारत को कांग्रेस या मुस्लिम मुक्त बनाने की या अपराधमुक्त, प्रदूषणमुक्त, शोषणमुक्त, गरीबीमुक्त और समस्यामुक्त करने की। और, इन तमाम पार्टियों की तरफ से न तो पहले कभी यह बयान आया और न ही अब आ रहा है कि भारत या किसी प्रदेश विशेष जैसे पंजाब या गोवा को नशामुक्त बनाया जाएगा। नशे का कारोबार और पकड़ इतनी मज़बूत हो चुकी है कि इस विषय पर कुछ कड़वे सच दर्शाती एक फिल्म को ही काट-पीट दिया जा रहा है। फिल्म देखने के बाद पता चलेगा कि इसमें क्या आपत्तिजनक है, लेकिन इतना तो आभास होता है कि साध्वी प्राची के उपरोक्त बयान से अधिक विध्वंसक तो शायद कुछ नहीं होगा।
उड़ता पंजाब के करीब 89 दृश्यों को सेंसर किये जाने के बाद मचे बवाल के बीच एक बात तो साफ हो चली है कि सेंसर बोर्ड निष्पक्ष रूप से कार्य नहीं कर रहा बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा एवं अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता संचालक संघ की विचारधारा का पोषण करने की एक एजेंसी भर बन गया है। और, वह भी दोयम दर्जे की, जो अपनी सोच एवं व्यवहार को लेकर ही निश्चित एवं स्पष्ट नहीं है। सेंसर बोर्ड और उसको अपने इशारे पर चलाने वालों में इतनी अक्ल कब आएगी कि वे यह समझ सकें कि हमारे देश की संस्कृति को नशे के कारोबार की हकीकत दिखाने से खतरा नहीं है बल्कि उन फिल्मों से खतरा है जो द्विअर्थी संवाद, अश्लील भंगिमाएं और निरर्थक नग्नता व चूमाचाटी प्रस्तुत करती हैं।
सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के साथ ही रिवाइज़िंग कमेटी के सदस्य भी अपनी योग्यता को लेकर सवालों के घेरे में हैं। ऐसे में, इस संस्था का महत्व शून्य हो जाता है। साथ ही, भाजपा के योजनाकारों एवं सलाहकारों की मानसिक परिपक्वता पर भी प्रश्न खड़ा होता है कि कब तक वे पहलाज निहलाणी ओर गजेंद्र चौहान जैसे लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर स्थापित करते रहेंगे। उड़ता पंजाब को लेकर फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप हाईकोर्ट पहुंचे हैं और ऐसे में निहलाणी का बयान है कि उन्हें मोदी का चमचा कहलाने में कोई शर्म नहीं है। शायद इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने की चाह रखने वाले भी निहलाणी के इस बयान के बाद माथा पीट रहे होंगे। वास्तव में, देश के रूप में हम अब तक वयस्क नहीं हुए हैं। भटके हुए किशोरों की तरह हम अब भी वयस्क प्रमाणपत्र पाने वाली फिल्मों में सेक्स और नग्नता देखने ही जाते हैं या बस यही देखना चाहते हैं। विचार से सरोकार न रखने वाली मानसिकता हमारे भीतर भर दी गयी है। सिनेमा ही नहीं, अनेक कला माध्यमों को हम केवल मनोरंजन का ज़रिया ही मान बैठे हैं। जैसे ही कोई कड़वा सच या अप्रिय वास्तविकता इस माध्यम ने प्रदर्शित की, हम कतराने या फिर बड़बड़ाने लगते हैं इसलिए हाउसफुल, क्या कूल हैं हम जैसी काल्पनिक भौंडी फिल्मों के एक के बाद एक सीक्वल सामने आ रहे हैं और उड़ता पंजाब जैसी फिल्मों के सामने आ रहे हैं प्रश्न और अवरोध।
एक प्रसंग यहां उल्लेखनीय है। 40 के दशक की बात है जब चार्ली चैपलिन ने फिल्म बनायी ‘हिटलर’ और शीर्षक भूमिका भी निभायी। इस फिल्म का विशेष प्रदर्शन जर्मनी में हिटलर की मौजूदगी में हुआ था। इस कालजयी फिल्म में हिटलर पर कटाक्ष भी हैं और आलोचना भी। इसके बावजूद ऐसा कुछ नहीं हुआ था कि हिटलर या उसके समर्थकों ने फिल्म का विरोध किया हो या जर्मनी में उस
फिल्म के प्रदर्शन को रोकने की बात हुई हो। एक प्रसंग है मशहूर नाटककार ब्रेख्त। वह भी द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अपने सृजन के चरम पर रहे और तमाम अमानवीय शक्तियों की भर्त्सना कर उनका मज़ाक उड़ाते रहे। हिटलर या किसी और तानाशाह की कभी मजाल नहीं हुई कि चैपलिन या ब्रेख्त का बाल भी बांका कर सकें।
इस पूरे प्रसंग में दो बात ध्यान देने की हैं। एक, कलाकार जब अपनी निष्पक्ष ईमानदारी से कर्म करता है और अपनी कला की शक्ति के प्रति प्रतिबद्ध होता है तब वह निर्भीक होता ही है। दूसरी यह कि, ऐसी कला और ऐसे कलाकार का विरोध करने में हर सत्ता या तानाशाह को भी सौ बार सोचना पड़ता है क्योंकि वह जानता है कि इससे उसके वर्तमान पर भी संकट आएगा और इतिहास भी उसे बार-बार दोषी करार देगा। अयोग्यों के हाथ में जब सत्ता आ जाती है या जो सत्ता के महत्व के दूरगामी गणित को समझते नहीं हैं, वही
लोग सत्ता के नशे में कला के प्रति इस प्रकार के असंगत एवं अपने ही लिए नुकसानदेह कदम उठाते हैं।
अब बात अभिव्यक्ति की आज़ादी की। महेश भट्ट ने उड़ता पंजाब के प्रति सेंसर बोर्ड के रवैये को कलाकार की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कुठाराघात बताया है। और भी कई लोगों ने इस तरह की टिप्पणियां की हैं। सच है, यह हमारे देश के वयस्क न हो पाने का एक और प्रमाण है। साध्वी प्राची, आज़म खान, सुब्रमण्यम स्वामी, राज ठाकरे आदि-आदि को हमेशा यह आज़ादी मिली है और मिल रही है
लेकिन कलाकार की जब बात आती है तो इसे परिभाषित किया जाने लगता है। इसकी सीमाएं और मर्यादाएं चर्चा का विषय बनती हैं और इस पर नियंत्रण की संभावनाओं पर सेमिनार होने लगते हैं। व्यवस्था की ओर से कलाकारों में भी पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया जाता है। वर्तमान में अनुपम खेर, गजेंद्र चौहान और पहलाज निहलाणी की अभिव्यक्ति की आज़ादी बंधनमुक्त भी है और सुरक्षित भी लेकिन अगर कोई कलाकार भाजपा या संघ के कैंप में निष्ठा नहीं रखता तो उसके लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी का उपयोग कर पाना सरल नहीं है।
अंतिम बात युवाओं की। सेंसर बोर्ड ने तर्क दिया है कि उड़ता पंजाब युवाओं को गलत दिशा देने वाली फिल्म साबित हो सकती है। कब कल्पनालोक से बाहर निकलेगा यह बोर्ड? जो युवा नशे के कारोबार में संलग्न हैं या नशे की गिरफ्त में हैं, उनको केंद्र में रखकर बनायी जाने वाली फिल्म कैसे युवाओं को भटकाएगी? भटके हुए युवाओं पर फिल्म बनाना युवाओं को भटकाना है? जिन हालात में युवा भटकते हैं, उन हालात को पैदा करने वाली, उन हालात में सुधार न करने वाली और उन हालात के दोषियों को सज़ा न देने वाली व्यवस्था
को सेंसर किया जाना चाहिए या एक फिल्म को? और अगर एक फिल्म युवाओं को भटका सकती है तो सोचने वाली बात है कि हमने देश में परिवार, समाज और व्यवस्था के स्तर पर कितनी शर्मनाक परिस्थितियों को पनपा दिया है। इस सवाल का जवाब सत्ता को देना चाहिए।
सिनेमाई कलात्मकता और गुणवत्ता की समझ परीक्षक या नियंत्रक का पैमाना होना चाहिए कि नहीं? विचार करें कि ब्लैक फ्राइडे, देव डी, गुलाल जैसी सार्थक और कलात्मक फिल्में देने वाले अनुराग कश्यप की योग्यता को परखने वाले पहलाज निहलाणी ने कितनी सार्थक और कलात्मक फिल्में बनायी हैं। राजनीति के कारण और कितनी मूर्खतापूर्ण स्थितियां जन्म लेंगी, यह खुलासा समय के साथ होगा ही।