पुरस्कार लौटाने का सिलसिला : 360 डिग्री पड़ताल
भारत दुनिया में विचारों की सबसे बड़ी हाट रहा है और है। परस्पर विरोधी विचारों का जितना समन्वय, स्वागत और अवसर इस धरती पर है, संभवतः दुनिया के किसी देश में नहीं है। एक देश या संप्रदाय विशेष के विरोध व धमकियों के कारण बौद्ध गुरु दलाई लामा इस धरती पर शरण पाते हैं तो दूसरी ओर मुस्लिम लेखिका तस्लीमा नसरीन भी। कई ईसाई, यहूदी, पारसी और न जाने कितने ही संप्रदायों के लोग बरसों, सदियों से यहां बसे हैं और अपने धर्म के अनुकूल जीवन-यापन कर रहे हैं। फिर भी, कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि भारत पर सांप्रदायिकता एवं धार्मिक कट्टरता के आरोप लगते हैं और तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं। ऐसी घटनाओं का विरोध होना चाहिए क्योंकि विश्व में भारत की मौलिक छवि के लिए ये घटनाएं खतरा हैं और एक गलत संदेश प्रसारित करती हैं।
कुछ महीने पहले कर्णाटक में कन्नड़ लेखक एमएम कालबुर्गी की हत्या का मामला और हाल में, दादरी में एक व्यक्ति की हत्या का मामला ऐसी ही घटनाएं हैं जिस पर मुखर प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। आरोप लगाये जा रहे हैं कि केंद्र में भाजपा सरकार के आते ही हिन्दूवादी माहौल पनपने लगा है और हिन्दू कट्टरता के मामले बढ़ रहे हैं। आरोप लग रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो बहुत और बहुत मनोरंजक ढंग से बोलते हैं, इन मामलों पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दूसरे मौन संस्करण प्रतीत हो रहे हैं। वहीं, केंद्र सरकार के कुछ नेता व मंत्री अटपटे बयानों के कारण आलोचना झेल रहे हैं। इस सबके बीच भारत के तकरीबन 30 लेखकों व साहित्यकारों ने अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार व कुछ अन्य सम्मान लौटाकर विरोध प्रकट किया है। यह भी एक मुद्दा बन गया है। क्या विरोध प्रकट करने का यह तरीका सही है? इस तरह सम्मानों व पुरस्कारों को लौटाने का अर्थ व संदेश क्या है? क्या यह परदे के पीछे की किसी राजनीति को इंगित करता है?
कालबुर्गी की हत्या वाकई दुखद प्रसंग है। इससे पहले भी गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर की हत्याएं हुई हैं जो सुर्खियों में रहीं और साहित्यकारों ने विरोध प्रकट किया। लेकिन, अब साहित्यकार पुरस्कार लौटाकर विरोध प्रकट करने की राह पर चल रहे हैं। उनके कुछ तर्क हैं। पहला वे कालबुर्गी व अन्य सांप्रदायिक हत्याओं का विरोध करना चाहते हैं। दूसरा, उन्हें दुख है कि साहित्यकारों की संस्था साहित्य अकादमी इस विषय में कोई दृष्टिकोण उजागर नहीं कर रही और साहित्य पर हो रहे हमलों के प्रति उदासीनता बरत रही है। तीसरा, वे असहिष्णुता के वातावरण के खिलाफ हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते।
यह पूरा मामला दो वर्गों में विभाजित हो गया है। एक वर्ग इन साहित्यकारों के विरोध और विरोध प्रकट करने के उक्त तरीके को सही बता रहा है और दूसरा वर्ग ऐसी घटनाओं के विरोध में है लेकिन विरोध के इस ढंग को सही नहीं मानता। दूसरे वर्ग का यह आरोप भी है कि ये साहित्यकार अपने पुरस्कार व सम्मान लौटाकर कुछ समय की सुर्खियां बटोरना चाहते हैं। सच क्या है? यह तो समय के साथ सामने आएगा लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से जो प्रश्न उपस्थित हो रहे हैं, उनके उत्तरों की तलाश करना चाहिए और उनकी तह में जाकर मंशा को समझना चाहिए।
पद्मश्री से सम्मानित और अनेक पुरस्कारों से नवाज़े जा चुके भोपाल निवासी कथाकार श्री मंज़ूर एहतेशाम कहते हैं कि –
“साहित्यकार विरोध कैसे प्रकट करेगा, वह तो अपनी संस्था के पास ही जाएगा। मैं भारत की छवि की परवाह करता हूं और साथ ही शांतिपूर्ण विरोध का भी हामी हूं इसलिए इस ढंग को सही समझता हूं। सही सोच लाने के लिए ऐसे प्रतिरोध ज़रूरी हैं। अगर नौबत आई तो मैं भी अपने सम्मान को लौटाने से पीछे नहीं हटूंगा।“
श्री एहतेशाम सांप्रदायिकता पर अपनी बात कहते हैं कि –
“अति की तरफ जाने वाले हारेंगे। समय उन्हें सबक सिखाएगा। अतिवाद हमारी छवि के अनुकूल नहीं है। अतिवादियों और उनका समर्थन करने वालों का भविष्य अंधकार में है।“
दूसरी ओर, पद्मश्री से सम्मानित और साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई सम्मानों से नवाज़े जा चुके वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. रमेशचंद्र शाह पुरस्कार लौटाकर विरोध जताने को सही नहीं मानते। उनका कहना है कि –
“अगर आप व्यवस्था पर फासिस्ट होने का आरोप लगा रहे हैं तो आप भी जानते हैं कि यह आरोप सही नहीं है। ऐसा होता तो आपका यह कदम उठाना भी सरल नहीं हो पाता। बात कुछ और है। सच को सरल और एकांगी रूप में प्रस्तुत करना ठीक नहीं है। लेखक ऐसा क्यों कर रहे हैं, मुझे नहीं पता लेकिन यह मुद्दे का राजनीतिकरण किया जाना प्रतीत हो रहा है। साहित्य किसी विचारधारा विशेष से संबद्ध नहीं हो सकता और न ही किसी एक पार्टी को धर्मनिरपेक्षता का ठेका दे सकता है। साहित्य को स्वस्थ सोच और पूरे सत्य को सामने लाना चाहिए। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि पुरस्कार लौटा देने से क्या हासिल होगा।“
श्री शाह बातचीत के दौरान यह विचार रखते हैं कि विरोध प्रकट करने का यह तरीका चुनने वाले साहित्यकारों में कम्युनिस्ट और कांग्रेस के समर्थक रहे साहित्यकार कितने हैं। उन्होंने यह भी कहा कि साहित्यकार में मौलिकता होना चाहिए लेकिन यह पूरा घटनाक्रम देखादेखी से प्रेरित है। इन सब बातों के बीच वह यह ज़रूर मानते हैं कि जो घटनाएं हुई हैं उनका विरोध करना चाहिए लेकिन साहित्यकार की कलम सबसे बड़ी ताकत है, वह उसके ज़रिये विरोध कर सकता है।
यह तो तार्किक है कि सच कभी उतना सरल होता नहीं है जितना सामने आता है और उतना ही नहीं होता जितना नज़र आये। यह एक जटिल मामला है इसलिए कई तरह के विचार और मत वैभिन्य उजागर होते हैं। हो सकता है कि पुरस्कार लौटाने वालों में से कुछ लेखक वाकई भावुक और संवेदनशील हों और हो यह भी सकता है कि किसी स्वार्थ से प्रेरित लेखक किसी किस्म की गोलबंदी कर रहे हैं। बहरहाल, सच सामने आएगा ही लेकिन फिलहाल जो एक महत्वपूर्ण प्रश्न हमारी चिंता का विषय है।
साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है जो साहित्यकारों के सहयोग से, साहित्यकारों के लिए कार्य करती है। गतिविधियों के क्रियान्वयन के लिए उसे सरकार से आर्थिक मदद अवश्य मिलती है लेकिन उसके फैसले सैद्धांतिक रूप से स्वतंत्र होते हैं। इस अकादमी से पुरस्कृत या संबद्ध लेखक अगर इसका दामन छोड़ देंगे तो क्या होगा? क्या ऐसा करने से साहित्यकार अपनी ही संस्था को कमज़ोर नहीं कर रहे? फिर, आपके छोड़े गये पदों पर जब सरकार ‘अपने’ लोगों को स्थापित कर देगी, तब क्या फिर आप विरोध नहीं करेंगे? और, संभव तो यह भी है कि आप सरकार को एक मौका दे रहे हैं कि वह इस संस्था को भंग ही कर डाले। भंग न करे तो आर्थिक सहयोग बंद कर दे या संस्था को निष्क्रिय व निष्प्राण कर दे। साहित्यकारों को भावुकता में या किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए जो साहित्य की एक प्रतिष्ठित संस्था का घोर अहित कर सकता है।
अगर पुरस्कार लौटाने के कदम उठाने में 30 लेखक एकजुटता दिखा सकते हैं तो क्या उचित यह नहीं होगा कि 30 या 40 या 50 लेखक एकजुट होकर केंद्र सरकार के संस्कृति विभाग या सीधे प्रधानमंत्री से मिलकर संवाद स्थापित करें और अपनी आपत्तियां दर्ज कराते हुए किसी सही निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश करें। दूसरा तरीका यह है कि जनजाग्रति के लिए कलम और ज़ुबान की आज़ादी का इस्तेमाल करें और अपनी बात को ताकत के साथ कहें। क्योंकि, आप पुरस्कार के साथ मिली राशि या प्रशस्ति पत्र लौटाकर अपनी पहचान से उस पुरस्कार को अलग तो नहीं कर सकते।
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