परदे पर बार-बार आईं कुछ कहानियां
- - Advertisement - -
चलचित्रों के प्रेमियों, रसिकों को पिछले कुछ समय से रह-रहकर यह खयाल आया होगा कि इतनी रीमेक फिल्में क्यों बन रही हैं। हिन्दी सिनेमा में इन दिनों पुरानी फिल्मों को दोहराये जाने की होड़ सी लगी हुई है या दूसरी भाषाओं की फिल्मों का हिन्दी में रीमेक यानी अनुवाद करने की कोशिश भी जारी है। कुछ, वास्तव में कुछ ही फिल्मकारों को छोड़ दें तो हिन्दी सिनेमा में यह चलन केवल और केवल व्यावसायिकता को केंद्र में रखता है, कलात्मकता या विचार या घनीभूत प्रेरणा से उसका कोई लेना-देना नहीं है। वहीं, पाश्चात्य सिनेमा में, स्थिति कुछ अलग है।
सात समुन्दर पार भी कुछ, वास्तव में कुछ ही कलाकार ऐसे हैं जो व्यावसायिकता नहीं बल्कि कला को उद्देश्य बनाकर किसी फिल्म या कहानी को दोहराना चाह रहे हैं। इसका ताज़ा उदाहरण है बेन हर। संभवतः अगले महीने प्रदर्शित होने जा रही यह फिल्म 1880 में ल्यू वॉलेस लिखित उपन्यास – बेन हर: ए टेल ऑफ दि क्राइस्ट पर ही आधारित है। इसी पुस्तक पर आधारित इसी शीर्षक से एक फिल्म 1959 में बनी थी जिसने लोकप्रियता एवं कलात्मकता के शिखरों को छुआ था। हालांकि पुरस्कार किसी कला की श्रेष्ठता की कसौटी नहीं होते, लेकिन उसकी कहीं न कहीं उसकी लोकप्रियता व प्रभाव को सिद्ध ज़रूर करते हैं इसलिए उल्लेखनीय है कि उस फिल्म को 11 ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त हुए थे, जो अब तक एक रिकॉर्ड है।
जिस कृति पर एक महान फिल्म बन चुकी है, उसी पर दूसरी फिल्म बनाने के लिए कोई कलाकार कैसे प्रेरित होता है या कैसे हौसला जुटाता है? इसके केंद्र में व्यावसायिकता तो है ही, लेकिन इससे अलग स्तर पर ताज़ा बेन हर के एक प्रमुख कलाकार ज़ैक हस्टन का कहना है कि अगर एक दृश्य को चार चित्रकार अपने कैनवास पर उकेरेंगे तो चारों एक समान नहीं होंगे। यह भिन्नता कलाकार की संवदेनशीलता और कलात्मक गुणवत्ता के कारण होती है। तर्क सही भी है, लेकिन तब, जबकि यह कलाकार का सच हो और इसके पीछे कोई आडंबर न हो। इस तरह की प्रेरणाओं से वास्तव में एक सिक्के के दो पहलू देखने को मिल सकते हैं। ईमानदार कोशिश है या नहीं, यह अगले माह पता चल जाएगा। इस प्रकरण के बहाने कुछ स्मृतियां ताज़ा करते हैं और हिन्दी सिनेमा में उन कहानियों पर गौर करते हैं जो बार-बार परदे पर आईं या कम से कम दो बार तो आईं ही।
इस सूची में सबसे आगे हैं शरत बाबू यानी शरतचंद्र। उनकी कम से कम दो कहानियां ऐसी हैं जिन्हें फिल्मकारों ने बार-बार रचा। देवदास – सहगल से लेकर अभय देओल तक कम से कम एक दर्जन बार यह कहानी परदे पर आयी, और तो और, इस बांग्ला कहानी ने भाषाओं की हदें पार करते हुए न सिर्फ हिन्दी बल्कि भारत की अन्य भाषाओं की फिल्मों तक अपनी पहुंच बनायी। फिर भी, देवदास पर बनी सबसे प्रभावशाली फिल्म बिमल रॉय निर्देशित 1955 की दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन व वैजयंती माला अभिनीत फिल्म मानी जाती है। संजय लीला भंसाली ने जब इसका रीमेक बनाया तो काफी चर्चा हुई और भंसाली ने भी कलात्मकता को लेकर तर्क दिये परंतु यह व्यावसायिक और स्मरणीय भूमिका ओढ़ने का लोभ मात्र ही सिद्ध हुआ क्योंकि भंसाली कुछ प्रभावशाली कर नहीं सके। इस कहानी पर सर्वथा नये ढंग से अनुराग कश्यप की फिल्म देव डी उल्लेखनीय रही, जिसने इस उपन्यास को समकालीन परिदृश्य से जोड़कर कुछ कहने की कोशिश की।
शरत बाबू की ही कहानी परिणीता भी हिन्दी सिनेमा में काफी लोकप्रिय रही। इस पर करीब चार फिल्में आधिकारिक रूप से बन चुकी हैं। इस कहानी पर आधारित फिल्मों में रंगीन के बजाय श्वेत-श्याम फिल्म ही अधिक सार्थक सिद्ध होती है। टैगोर की काबुलीवाला पर दो-तीन फिल्में बनीं और टीवी शो भी, लेकिन यहां भी बिमल दा बाज़ी मार गये।
विजयदान देथा की चर्चित कहानी दुविधा पर भी दो फिल्में बनीं। एक दुविधा नाम से और दूसरी पहेली। ऐसे भी उदाहरण हैं जब एक ही फिल्मकार ने एक ही कहानी को दोहराया। मेहबूब खान ने औरत बनायी और उसी फिल्म को दूसरी बार मदर इंडिया के नाम से बनाया जो हिन्दी सिनेमा की सर्वाधिक प्रभावशाली फिल्मों में से एक सिद्ध हुई। इसी तरह केदार शर्मा ने 1941 में फिल्म बनायी चित्रलेखा, जो हिन्दी के मशहूर लेखक भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास पर आाधारित थी। शर्मा जी ने ही चित्रलेखा करीब 22 साल बाद फिर बनायी और मीना कुमारी व अशोक कुमार अभिनीत यह फिल्म एक क्लासिक साबित हुई।
वास्तव में, कुछ ऐसी कहानियां होती हैं जो अनायास ही लोकजीवन और जनमन का हिस्सा बन जाती हैं। ये किसी न किसी रूप में, हर बार किसी सतह पर प्रकट होती रहती हैं। कहा भी जाता है कि रामायण और महाभारत, दो कथाएं हैं जिनके मूल्यों व अंतर्निहित संदेशों से हटकर कुछ और कहा जा ही नहीं सकता। यानी हर कथा का मूल इन्हीं दो कथाओं के किसी कोने में छुपा हुआ है। बहुत हद तक बात सही भी है। दूसरी ओर, कुछ ऐसी कहानियां सिनेमा के माध्यम से स्थापित हुईं जो आने वाली फिल्मों के लिए कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल हुईं।
हिन्दी सिनेमा में ज़्यादातर, लगभग सभी प्रेम कथाओं में एक धागा समान दिखेगा जो आपको कभी लैला मजनूं, कभी हीर रांझा, कभी सोहनी महीवाल तो कभी देवदास से जोड़ देगा। ये कुछ स्थापित एवं लोकमानस में उतरी हुई प्रेमकथाएं हैं, जो हर प्रेमी के साथ अपना रिश्ता जोड़ लेती हैं। इसी तरह तवायफ़ों को केंद्र में रखकर जितनी हिन्दी फिल्में बनी हैं, उनमें एक अन्तर्वस्तु समान है। वह यह कि एक औरत जिसे मर्द चाहता है, जिस पर फ़िदा भी है, जिके लिए सब कुछ लुटा भी सकता है आदि-आदि लेकिन मर्द उस औरत को इज़्ज़त देने और अपनाने से कतराता है और हर बार उससे सहारा पाकर भी उसका तिरस्कार कर देता है। यह पीड़ा हर उस फिल्म में अंतर्निहित है जो इस विषय पर बनी हैं। दो-एक फिल्मों ने साहस किया और सामाजिक बदलाव की मशाल उठाकर चलीं जैसे – साधना। बीआर चोपड़ा की इस फिल्म में अंततः नायक एक तवायफ़ को अपनाने की हिम्मत करता है।
और आखिरकार अपराध विषयक फिल्में या अंडरवर्ल्ड आधारित कहानियां। अंडरवर्ल्ड या गैंगवॉर जैसे विषयों की लगभग सभी फिल्में मारियो पुज़ो के मशहूर उपन्यास गॉडफादर से प्रेरित रही हैं और अब तक हैं। दूसरी तरफ़, शोले भी एक हॉलीवुड फिल्म से प्रेरित थी, लेकिन शोले का प्रभाव हिन्दी सिनेमा पर ज़बरदस्त रहा। एक गांव या इलाके को एक खूंखार अपराधी से बचाने के लिए एक या दो नायक मसीहा बनकर आते हैं और मज़लूमों को छुटकारा दिलाते हैं। इस कहानी पर दर्जनों फिल्में शोले के बाद बनीं। मज़ेदार बात यह है कि बार-बार दोहरायी जाने वाली ये तमाम कहानियां कई बार हमें आकर्षित करती हैं, हमारा मनोरंजन करती हैं और हमें आनंदित करती हैं।
हिन्दी सिनेमा और संभवतः दुनिया भर के सिनेमा में यह बात समझने की है कि हर भाषा के सिनेमा का अपनी संस्कृति, अपनी ज़मीन से एक खास किस्म का जुड़ाव होता है। उस ज़मीन से कटकर आप प्रभावी कहानी नहीं कह सकते। जैसे संगीत में लोकधुनें और कुछ हद तक शास्त्रीय धुनें जितनी लोकप्रिय सिद्ध होती हैं उतनी हवा-हवाई धुनें नहीं। पुराने गीतों की मधुरता आज भी इसलिए कायम है क्योंकि वे हमारी ज़मीन के साज़ से निकले थे। वही गीत बार-बार दोहराये जाते हैं। इसी तरह ये कहानियां जो हमारी ज़मीन और हमारे लोकजीवन से गहरा जुड़ाव रखती हैं, बार-बार हम पर एक अलग ढंग से, एक अलग संवेदना के साथ खुलती हैं। बस, कलात्मकता यही है कि उस अलग ढंग, अलग संवेदना और अलग अर्थ को आप प्रकट कर पाते हैं या नहीं। यदि हां, तो एक फिल्मकार द्वारा उस कहानी को दोहराया जाना सार्थक सिद्ध हो जाता है।
[avatar user=”bhavesh” size=”thumbnail” align=”left” /]
- - Advertisement - -