ओलिंपिक के सबक
चार साल में एक बार होने वाला खेलों का महाकुंभ समाप्त हो चुका है लेकिन भारत के लिये वह कई सबक छोड़ गया है.
ब्राजील के रियो शहर में आयोजित ओलिंपिक खेल खत्म हो चुके हैं. परिणाम और पदक संख्या के हिसाब से ये खेल भारत के लिए कोई खास नहीं रहे. इससे पहले लंदन ओलिंपिक में हमारे देश को छह पदक जबकि उससे पहले बीझिंग ओलिंपिक में तीन पदक मिले थे. लेकिन इस बार हमारा देश एक रजत और एक कांस्य पदक पर ही ठिठक कर रह गया. पेज 3 सेलिब्रिटी शोभा डे ने जहां ट्विटर पर भारतीय खिलाडिय़ों का मजाक उड़ाते हुए कहा कि वे ओलिंपिक में मौज मस्ती करने जाते हैं तो वहीं भारतीय राजनेताओं ने भी रियो ओलिंपिक के खेल गांव में देश की खूब नाक कटवायी.
भारत की ओर से दोनों पदक विजेता लड़कियां रहीं. जिमानस्टिक्स में दीपा कर्मकार ने फाइनल में स्थान बनाया और वह मामूली अंतर से चौथे स्थान पर रहीं. इस लिहाज से देखा जाये तो यह ओलिंपिक भारत की गर्ल पॉवर के लिए जाना जायेगा. लेकिन क्या इसके अलावा इस खेल में हमारे लिये सबकुछ निराश करने वाला ही रहा?
इस प्रश्न का जवाब देना मुश्किल है. देश में खेलों के बुनियादी ढांचे को देखते हुए और जिस प्रकार हमें हर चौथे साल ओलिंपिक खेलों के ऐन पहले इनकी याद आती है. उसे देखते हुए टीम के प्रदर्शन को बहुत बुरा नहीं माना जा सकता है. आखिर हम एक क्रिकेट प्रेमी देश हैं. बहरहाल देश में खेलों का स्तर सुधर रहा है और उसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:
सबसे बड़ा दल
भारत ने इस ओलिंपिक में सबसे बड़ा 118 सदस्यीय दल भेजा और इस बात का खूब मजाक बनाया गया. लेकिन समझने वाली बात यह है कि इन सभी 118 खिलाडिय़ों ने ओलिंपिक के लिये बकायदा क्वालीफाई किया था. अब वह समय नहीं है कि कोई देश अपने खिलाडिय़ों को खुद नॉमिनेट करके ओलिपिक में भेज दे. इसके लिए खिलाडिय़ों को बकायदा अंतराष्टरीय ओलिंपिक संघ द्वारा तय मानक पूरे करने होते हैं. यानी ओलिंपिक में जाने वाले सभी खिलाड़ी अंतरराष्टरीय स्तर के थे जिनमें पदक जीतने की क्षमता थी. ये खिलाड़ी किसी की कृपा से रियो नहीं गये थे.
एकल स्पर्धा में पदक
हाल के दिनों में देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेलों में एकल स्पर्धाओं में अधिक पदक मिल रहे हैं जो एक सकारात्मक बात है. यह सच है कि ओलिंपिक में कोई देश एकदम जीरो से हीरो नहीं बन सकता लेकिन यह भी सच है कि ओलिंपिक खेलों के अब तक के इतिहास में एकल मुकाबलों में हम अब तक एक स्वर्ण पदक, छह रजत पदक और 10 कांस्य पदक ही जीत सके हैं और एक कांस्य पदक को छोड़कर शेष सारे बदक बीते तीन-चार ओलिंपिक में ही आये हैं.
हॉकी में वापसी
हॉकी जो ओलिंपिक में हमारी शान हुआ करता था, वह अब हमारा राष्ट्रीय खेल अवश्य है लेकिन केवल कागजों पर. हकीकत में तो जाने कब से क्रिकेट उसकी जगह ले चुका है. ऐसे में इस ओलिंपिक में हॉकी में हमारी टीम 32 साल बाद न केवल क्वार्टर फाइनल में पहुंची बल्कि ग्रुप स्टेज पर उसने नीदरलैंड और जर्मनी जैसी टीमों को कड़ी टक्कर दी. जिस अर्जेंटीना को हमने ग्रुप मैच में हराया था, उसने ओलिंपिक हॉकी का स्वर्णपदक जीता. विश्व की हॉकी रैंकिंग में हमारी टीम इस समय पांचवे स्थान पर है और हाल के दिनों में उसने सभी दिग्गज टीमों को हराया है. इस लिहाज से देखा जाये तो हॉकी की दशा लगातार सुधर रही है. देश में हॉकी के पतन के लिए क्रिकेट ही जिम्मेदार है क्योंकि सन 1983 में विश्व कप क्रिकेट में जीतने के बाद देश के मीडिया, बाजार और दर्शकों सब ने हॉकी से दगा की और क्रिकेट को अपना बैठे.
बैडमिंटन के स्मैश
इस ओलिंपिक की सकारात्मक यादों में एक स्थान बैडमिंटन का भी है जिसमें पीवी सिंधू ने हमें महिला एकल का रजत पदक दिलाया. वहीं पुरुष वर्ग में किदांबी श्रीकांत क्वार्टर फाइनल में पिछले विजेता चीन के लिन डान से कड़े मुकाबले में हार गये थे. महिला एकल के फाइनल में भी सिंधू विश्व की नंबर एक खिलाड़ी से कड़ा संघर्ष करके तीन गेम में हारीं. इससे पहले पिछले ओलिंपिक में भी साइना नेहवाल ने हमें बैडमिंटन का कांस्य पदक दिलवाया था.
बॉक्सिंग, कुश्ती और शूटिंग
बॉक्सिंग और शूटिंग में भले ही हमारे खिलाड़ी कोई पदक नहीं जीत पाये लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि इन खेलों में हमारे खिलाड़ी विश्व में शीर्षस्थ खिलाडिय़ों में शामिल हैं. शूटिंग में अभिवन बिंद्रा दशमलव अंक से पिछड़कर कांस्य पदक हासिल करने से चूक गये थे. हालांकि हमें एकल वर्ग में इकलौता स्वर्ण पदक दिलाने वाले खिलाड़ी भी वही हैं. कुश्ती की बात करें तो 58 किलो महिला फ्रीस्टाइल में साक्षी मलिक ने कांस्य पदक अवश्य जीता लेकिन हमारे कुश्ती महासंघ में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. राजनीति के चलते ही नरसिंह यादव और सुशील कुमार जैसे दिग्गज आपस में उलझ गये और फिर एक ऐसा षडयंत्र हुआ कि नरसिंह को रियो जाकर भी खेलने का मौका नहीं मिला, उन पर चार साल का प्रतिबंध अलग से लग गया. वहीं टेनिस में सानिया मिर्जा और रोहन बोपन्ना, राजीव राम और वीनस विलियम्स की जोड़ी से सेमीफाइलन में करीबी मुकाबला हार गये.
क्या हुआ है सुधार?
सबसे बड़ा सुधार भारतीय खिलाडिय़ों की रैंकिंग में हुआ है. इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. सन 1988 के सियोल ओलिंपिक तक जहां दुनिया के टॉप 25 में इक्कादुक्का भारतीय हुआ करते थे वहीं आज 50 से अधिक भारतीय खिलाड़ी अलग अलग खेलों के टॉप 10 में शामिल हैं. साइना नेहवाल, श्रीकांत, पीवी सिंधू, सानिया मिर्जा, हॉकी टीम, दीपा कर्मकार, दीपिका कुमारी, योगेश्वर दत्त आदि इसके उदाहरण हैं. कल को ऐसे कई खिलाड़ी टॉप 10 में आयेंगे और तब इनके ओलिंपिक पदक जीतने की संभावना और बढ़ जायेगी. हमें समझना होगा कि कोई भी देश अचानक विश्व विजेता नहीं बन जाता है. यह एक लंबी प्रक्रिया है.
हरियाणा से सबक
हमें हरियाणा से सबक लेने की आवश्यकता है. इस राज्य की आबादी देश की कुल आबादी के दो फीसदी से भी कम है लेकिन देश के ओलिंपिक पदकों में से तकरीबन दो तिहाई इस राज्य की देन हैं और तमाम बाधाओं के बावजूद बहुत छोटी सी आबादी वाले मणिपुर ने हॉकी, मुक्केबाजी, महिला भारोत्तोलन और तीरंदाजी में तमाम नायाब प्रतिभाएं दी हैं।
बहरहाल, अपने ओलिंपिक अभियान की शुरुआत हमें एशियाड से करनी होगी. हमारा लक्ष्य होना चाहिये एशियाई खेलों में शीर्ष चार-पांच में आना. उसके बाद ही हम ओलिंपिक के बारे में सोच सकते हैं.