अब समय ऑनलाइन लघु फिल्मों का है
शिरीष कुंदर निर्मित शॉर्ट फिल्म कृति को लेकर उपजा विवाद हो, हाल में दिवंगत महाश्वेता देवी जी की कहानी पर आधारित शॉर्ट फिल्म का निर्माण हो, मुख्यधारा के फिल्म कलाकारों जैसे मनोज बाजपेयी, इरफ़ान आदि का इस ओर रुख करना हो या इंटरनेट पर ऐसे वीडियोज़ की बाढ़ हो, ये सभी घटनाएं मजबूर करती हैं कि शॉर्ट फिल्मों पर एक सिलसिले से बात की जाये। साथ ही, आभास होने लगा है कि या तो इसका समय आ गया है या फिर बहुत देर नहीं है आने में।
शॉर्ट फिल्म अपनी एक परिभाषा एवं प्रभाव गढ़ने के दौर में प्रगतिशील है। पिछले कुछ समय से इसका दायरा, पहुंच और कथ्य चर्चा का विषय बना है। एक ओर जहां इसके कथ्य और कॉंटेंट में परिपक्वता आ रही है, वहीं इसके मार्केट को लेकर भी विमर्श हो रहे हैं। एक स्तर पर कह सकते हैं कि यह समय संक्षिप्तीकरण का भी है। हिंदी के व्यावसायिक सिनेमा पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि कुछेक अपवादों को छोड़कर अब फिल्में दो घंटे की अवधि के आसपास की बनने लगी हैं, जो पहले तीन घंटे की अवधि के करीब होती थीं। क्रिकेट में टी20 का प्रारूप और 5 ओवर मैच की चर्चाएं भी ऐसा ही इंगित करती हैं। ट्विटर पर 140 अक्षरों की सीमा में अपनी बात कहना और भोजन का क्षेत्र हो
या तकनीक का, हर जगह इंस्टेंट और लघु की सोच ने आकर्षण पैदा कर दिया है। हम मशीनी और व्यावसायिक जीवन में इतने मशगूल हो चुके हैं कि हमारे पास लंबी या ज़्यादा समय की मांग करने वाली गतिविधियों के लिए समय नहीं है। ऐसे में हर स्तर पर संक्षेप का रास्ता खोजा जा रहा है। साहित्य में, लंबी कविताएं या महाकाव्य पढ़ने की प्रवृत्ति भी लगभग खत्म है और गीत-ग़ज़ल आदि ज़्यादा पढ़े जा रहे हैं। इसी तरह उपन्यासों के स्थान पर छोटी कहानियां यानी लघुकथा पाठक को आकर्षित कर रही है।
वास्तव में, लघुकथा को ही लघु फिल्म का आधार या प्रेरणास्रोत माना जाना चाहिए। साहित्य में लघुकथा पर विमर्श व सृजन पहले सामने आता है फिर लघु फिल्मों का सिलसिला चलता है। एक दृष्टि लघुकथाओं पर डालें तो देखेंगे कि दादी-नानी जो कहानियां सुनाया करती थीं, उनमें अधिकांश लघुकथाएं हैं। उनका अपना एक विषय विश्व था – राजा-रानी, परियां या उपदेश या भूत वगैरह। जैसे दोहों ने लंबे समय तक नीतियों का चोला ओढ़े रखा वैसे ही लघुकथाओं ने नैतिकता और संदेश का। कालांतर में समाज और समय के छोटे-छोटे अनुभवों व
अवलोकनों को इसमें समाहित किया जाने लगा। वर्तमान में वही हादसा लघुकथाओं में भी है, जो एक समय हर विधा या सृजन प्रारूप के साथ हो ही जाता है कि भीड़ लग गयी है, इनमें श्रेष्ठ लघुकथा ढूंढ़ना दुरूह हो गया है।
अधिकांश लघुकथाएं एक छोटे विचार, एक सामान्य दृश्य या एक आम घटना से जुड़कर एक पक्षीय व्यंग्य या कटाक्ष का ही उद्घाटन कर पाती हैं। ऐसी लघुकथाएं वास्तव में लघु तो हैं, कथाएं नहीं हैं क्योंकि इनमें चरित्र विशेष, प्रयोजन विशेष एवं बहुस्तरीय भाव-विचार का अभाव है। इसी कड़ी में बहुत सी लघु फिल्में भी हैं, जो एक हुड़क या अचानक कौंधे विचार, जिसे आइडिया कह सकते हैं, को कुछ मिनटों में प्रदर्शित करती हैं। उदाहरण के लिए, एक शॉर्ट फिल्म का कथ्य देखें – एक लड़की एक रेस्तरां में एक लड़के से मिलती है। बातों-बातों में फ्लर्ट होता है और नये लोगों से दोस्ती की जिज्ञासा जगाकर लड़के को साथ ले जाती है। लड़का किसी और धुन में है, लेकिन लड़की उसे वृद्धाश्रम ले जाती है और फिल्म समाप्त हो जाती है। ठीक तो है, लेकिन इतना एकांगी हो जाता है कि आप पांच मिनट बाद एक लमहे को चौंकते हैं और फिर उसके प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं क्योंकि चरित्र से आप जुड़ नहीं पाये, कथानक से आप और कुछ ले भी नहीं पाये।
इस तरह की लघु फिल्मों की भीड़ ऑनलाइन देखी जा सकती है लेकिन सार्थक लघु फिल्में भी ठीक संख्या में सामने आ रही हैं। अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, संतोष सिवान जैसे मुख्यधारा के फिल्मकार और मनोज बाजपेयी, राधिका आप्टे, इरफ़ान, नवाज़ुद्दीन जैसे कलाकार लघु फिल्मों का रुख करने लगे हैं तो, यह भी एक प्रमाण है कि इनका प्रभाव और बाज़ार तरक्की की राह पर है। अपनी संभावनाओं में असीम विस्तार देख रही लघु फिल्म, व्यवसाय के दृष्टिकोण से भी पंख फैलाने की तैयारी में दिख रही है।
एक और पहलू है कि मुख्यधारा की कुछ फ़ीचर फिल्में क्या लघु कथाओं का संग्रह कही जा सकती हैं? क्या लघु फिल्मों की गंगोत्री फ़ीचर फिल्म को ही माना जाना चाहिए? इन प्रश्नों की वजह बॉम्बे वेलवेट, आई एम, मुंबई मेरी जान जैसी कुछ फीचर फिल्में हैं। ये फिल्में तीन-चार अलग-अलग कहानियों को साथ लेकर चलती हैं। कुछ अंत में किसी तरह जुड़ती हैं तो कुछ नहीं भी। एक फीचर फिल्म दस कहानियां तो वाकई दस अलग-अलग कहानियों का ही संग्रह थी। मिर्च, डरना मना है जैसी और भी कई फिल्में इस सूची में शुमार होती हैं। लेकिन फिर भी, लघु फिल्मों को अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व खोजना था और अब ऐसा लग रहा है कि यह खोज मंज़िल को पा रही है।
ऑस्कर पुरस्कारों में बहुत पहले से लघु फिल्मों की श्रेणी शामिल है। इसके लिए कई श्रेष्ठ फिल्में बहुत पहले से बनती भी रही हैं। इसके बावजूद हिन्दी में या भारत में इस विधा की व्यापकता पिछले करीब डेढ़ दशक पहले तक नहीं थी। पिछले दो दशकों में फिल्म संस्थानों से निकले छात्रों, फिल्म जगत में अवसर तलाशने वाले संघर्षशील कलाकारों ने लघु फिल्मों को एक प्लेटफॉर्म या अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का माध्यम चुना। यूट्यूब एवं अन्य ऑनलाइन चैनलों ने उन्हें सुविधा दी। एक प्रकार से कई तरह के तकनीकी एवं कलात्मक रोज़गार भी लोगों ने स्वयं पैदा कर लिये हैं। यानी लघु फिल्में अपना एक दायरा और मार्केट बना रही हैं, विस्तृत कर रही हैं।
एक-डेढ़ दशक पहले की बात करें तो विभिन्न देशी-विदेशी फंड से किसी खास प्रोजेक्ट या प्रयोजन के तहत बनीं लघु फिल्मों में से कुछ बेहतरीन व सार्थक चित्र छांटे जा सकते हैं। ब्लड ब्रदर्स, एड्स जागो, पॉज़िटिव, लिटिल टेररिस्ट, माइग्रेशन, उस दिन, पोर्ट्रेट, रास्ता, बायपास, ब्लैक मिरर आदि। कुछ समय पहले ही एक इतालवी कलाकार द्वारा हाल में दिवंगत मशहूर कथाकार महाश्वेता देवी की एक कहानी पर लघु फिल्म चोली के पीछे उर्फ गणगौर बनायी गयी, जो चर्चित हुई और देश-विदेश में इसने कई पुरस्कार भी जीते।
इस पूरे परिदृश्य में पिछले एक साल में कुछ श्रेष्ठ अध्याय जुड़े हैं। कृति, अहल्या, दि वर्जिन्स आदि लघु फिल्में ऑनलाइन पसंद की जा रही हैं। इन्हें दर्शक मिल रहे हैं और विज्ञापन भी। कृति को लेकर एक विवाद भी हो गया। शिरीष कुंदर निर्मित इस फिल्म पर एक नेपाली कलाकार ने आरोप लगाया कि यह उनकी फिल्म को चुराकर बनायी गयी है। मामला अदालत तक पहुंच गया। बावजूद विवादों के यह फिल्म ऑनलाइन जारी है और देखी जा रही है। इस घटनाक्रम से यह भी संकेत मिला कि जब फीचर फिल्म उद्योग के कलाकार लघु फिल्म में आते
हैं तो प्रचार के वही स्टंट लघु फिल्म क्षेत्र में भी दिखते हैं।
एफटीआईआई के साथ ही सुभाष घई संचालित फिल्म संस्थान व्हिसलिंग वुड्स के कई छात्र अपनी शॉर्ट फिल्में बना रहे हैं और इंटरनेट पर ऑनलाइन जारी कर रहे हैं। कुछ फिल्मों को तो ऐसे संस्थान या बड़े बैनर तक प्रस्तुत कर रहे हैं। छोटे या टू टीयर या कथित विकासशील शहरों में थिएटर या स्थानीय टीवी या विज़ुअल आर्ट्स से जुड़े कुछ कलाकार अपने स्तर पर या समवेत रास्तों से कुछ लघु फिल्में बना रहे हैं। इनमें सभी को तो श्रेष्ठ या महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, लेकिन कुछ तो अवश्य हैं।
करीब दो साल पहले एक टीवी चैनल ने शॉर्ट फिल्म प्रतियोगिता आयोजित कर विजेता लघु फिल्में टीवी पर प्रदर्शित की थीं। ऐसे आयोजन हो रहे हैं। विेदेश में पिछले कई सालों से एक टीवी चैनल है, एचबीओ, जो सिनेमाघरों नहीं बल्कि टीवी पर वर्ल्ड प्रीमियर के लिए फिल्मों का निर्माण करवाता है। इसके तहत कुछ शॉर्ट फिल्मों का निर्माण भी हुआ है। संभवतः ऐसा प्रयोग भारत में भी जल्द देखा जा सकता है। शॉर्ट फिल्म का एक पहलू है सॉफ्ट पॉर्न, इसे शॉर्ट फिल्म के दायरे में परोसा और समझा जा रहा है। यह अलग मुद्दा है कि इसे इस श्रेणी में रखा जाये या नहीं, लेकिन वीडियो की अवधि और दर्शकों की खासी संख्या के कारण इसे सिरे से खारिज तो किया जा ही नहीं सकता।
तो, इंटरनेट पर प्रकाशन व प्रदर्शन की सुविधा, मोबाइल से लेकर प्रोफेशनल कैमरों तक से शूटिंग किया जाना, व्यावसायिक रूप से एडिटिंग एवं स्पेशल इफेक्ट्स के साथ प्रस्तुतिकरण आदि तमाम कारणों से यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि वह दिन दूर नहीं, जब शॉर्ट फिल्में अपना एक अलग उद्योग निर्मित कर लेंगी और अपना एक दर्शक वर्ग भी।