सार्क बैठक: विश्वास बहाली के अच्छे संकेत
By Abhishek Mehrotra
पठानकोट हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों पर जमी बर्फ अब पिघलती नजर आ रही है। नेपाल में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ यानी दक्षेस के इतर जिस माहौल में विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और पाकिस्तानी विदेश मामलों के सलाहकार सरताज अजीज के बीच मुलाकात हुई, उसने काफी हद तक भविष्य की संभावनाओं को दर्शा दिया है। स्वराज और अजीज ने पठानकोट सहित कई मुद्दों पर बातचीत की। आमतौर पर पाकिस्तानी धारणा उन मसलों पर बातचीत से बचने की रहती है, जो भारत की ओर से उठाए जाते हैं। इसमें आतंकवाद सबसे प्रमुख है, लेकिन इस बार पाकिस्तान ने न केवल बातचीत की, बल्कि उससे एक कदम आगे बढक़र जांच में सहयोग का भरोसा भी दिलाया।
अगर कूटनीतिक नजरिए से देखा जाए तो इस मामले में भारत पहली सफलता हासिल कर चुका है। संभवत: यह पहली बार है कि पाकिस्तान भारत में हुए आतंकी हमले की जांच के लिए अपनी टीम भेजने जा रहा है। इसका परिणाम भले ही जो हो, मगर इसे विश्वास बहाली की दिशा में सार्थक कदम तो कहा ही जा सकता है। केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से भारत की विदेश नीति, खासकर पाकिस्तान के संदर्भ में काफी बदलाव आया है। हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि भारत प्रत्येक दुस्साहस के लिए पड़ोसी को सबक सिखाने की स्थिति में आ गया है, लेकिन मानसिक तौर पर जो माहौल बनाया गया है वो काफी प्रभावशाली है। वैसे भी विदेशनीति में आवेश में आकर फैसले नहीं लिए जाते। हर एक्शन के संभावित री-एक्शन पर ध्यान केंद्रित करके ही आगे बढ़ा जाता है। पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते जितने पेचीदा हैं, उतने ही महत्वपूर्ण भी। इसलिए यहां आवेश की कोई गुंजाइश नहीं। सामान्य जीवन में जिस तरह पड़ोसी के साथ अच्छा तालमेल खुशहाल भविष्य की नींव होता है, वैसा ही विदेश नीति में भी है। पाकिस्तान भले ही प्रत्यक्ष तौर पर भारत की सामरिक ताकत का सामना न कर पाए, लेकिन वो अप्रत्यक्ष तौर पर हमारी जड़ें कमजोर करने का प्रयास हमेशा कर सकता है, और वो अब तक करता ही रहा है। उसे चीन का समर्थन प्राप्त है, जो अपनी कूटनीतिक चालों के लिए विख्यात है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाक के साथ रिश्तों का तालमेल बैठाना आसान नहीं है।
पाकिस्तान एक ऐसे उदंडी बालक की तरह है, जिसे उसकी उदंडता का जितना अहसास कराया जाए, वो उतनी ही तीव्र प्रतिक्रिया के साथ आता है। ऐसे में प्रत्यक्ष कार्रवाई नहीं, मानसिक दबाव निर्मित कर स्थिति को नियंत्रित किया जा सकता है। और यही भारत सरकार कर रही है। सत्ता में आने से पहले नरेंद्र मोदी की जो छवि भाजपा ने बनाई थी, उसका फायदा अंतरराष्ट्रीय संबंधों के स्तर पर भी देश को मिल रहा है। भारत के प्रति दशकों से जो एक सोच चली आ रही थी, वो अब बदली है। पड़ोसी मुल्क मानसिक दबाव में हैं कि उनका कोई कदम गंभीर परिणामों की वजह न बन जाए। यही कारण रहा कि पठानकोट हमले के बाद पाकिस्तान की तरफ से पारंपरिक प्रतिक्रियाएं सुनने को नहीं मिलीं। ये भारत के लिहाज से एक बड़ी कामयाबी है और हम इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। अब इस बात की संभावना भी बढ़ गई है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तान में होने वाले सार्क सम्मेलन में शामिल हों। विश्वास बहाली के लिए मेल-मिलाप बेहद जरूरी है। जो लोग इसका विरोध करते हैं कि वो खुद पूर्व वही करते रहे।
मैं किसी की तुलना नहीं करना चाहता, मगर कांग्रेस के शासनकाल में मुंबई जैसे वीभत्स हमले हुए, इसके बावजूद छोटे-छोटे ब्रेक के साथ बातचीत चलती रही। ऐसा इसलिए कि बिना बातचीत कुछ संभव ही नहीं। हर पार्टी यह जानती है कि मिल बैठकर चर्चा से आगे चलने के लिए रास्ते निकलते हैं, लेकिन फिर भी वह विरोध की परंपरा नहीं छोड़ती। वैसे इसे उनकी राजनीतिक मजबूरी भी कहा जा सकता है। अगर वो सत्ताधारी दल को सही बताने लगे, तो उसका अपना अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। यही भारतीय राजनीति की विडंबना है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि आतंकवादी हमलों के मामले में देश को कांग्रेस की छवि का खामियाजा उठाना पड़ा। जबकि इसके उलट मोदी की कट्टर छवि देश के काम आ रही है। सरकार को मानसिक दबाव का घेरा थोड़ा और कसने की जरूरत है, थोड़ा इसलिए कि अत्याधिक दबाव भी घातक सिद्ध हो सकता है। पाकिस्तान अब ये समझ गया है कि वो भारत के खिलाफ पुराने ढर्रे पर कायम नहीं रह सकता। लेकिन उसे ये अहसास दिलाना भी जरूरी है कि दोषियों का संरक्षण भी उसके लिए नुकसानदायक हो सकता है।
अब तक जिस तरह से मोदी सरकार ने विदेश नीति खासकर पाकिस्तान से संबंधों को संभाला है, वो काबिले तारीफ है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि मोदी जब सार्क सम्मेलन में शामिल होने के लिए पाकिस्तान जाएंगे, तब भारत को कूटनीतिक लिहाज से कुछ और सफलताएं मिलें। फिलहाल हमें पूर्वाग्रहों को छोडक़र इस बात के लिए खुश होना चाहिए कि हमारा पड़ोसी बिना किसी शर्त के बातचीत में दिलचस्पी दिखा रहा है।
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