उड़ता पंजाब ने भरी उड़ान, अब कतरे जाएं निहलाणी के पर
तो, अंततः उड़ता पंजाब ने उड़ान भर ही ली। सेंसर बोर्ड और ऑनलाइन अड़ंगों के बावजूद फिल्म को एक ठीक-ठाक ओपनिंग मिली। कारोबार के लिहाज़ से फिल्म कितनी सफल होगी, यह आने वाले कुछ दिनों में पता चल ही जाएगा लेकिन फिल्म, निर्माण के औचित्य और कलात्मकता की कसौटी पर लगभग सफल कही जा सकती है। साथ ही, पिछले संदर्भों को मद्देनज़र रखें तो, इस फिल्म के ज़रिये कुछ विमर्श करना भी ज़रूरी हो जाता है।
फिल्म पर उठे विवाद और पहलाज निहलाणी पर मुकदमा बाद में, पहले फिल्म की कहानी पर बात करते हैं। पंजाब में नशे के वास्तविक परिवेश में जीने वाले चार किरदार इस कहानी के केंद्र में हैं। एक बिहारी लड़की, जो महत्वाकांक्षा के चक्कर में नशे और उससे जुड़े अपराध का शिकार बनती है। एक पॉप स्टार, जो नशे पर आधारित गाने बनाकर स्टार बना है और नशे का शिकार है। एक डॉक्टर जो नशे के रोगियों का इलाज करती है और नशे के खिलाफ लड़ाई भी। और एक एएसआई, जो नशीली दवाओं के ट्रकों को रिश्वत लेकर क्लीनचिट देता है, लेकिन बाद में डॉक्टर के साथ मिलकर लड़ता है।
पंजाब में नशे के कारोबार के नेक्सस को एक काल्पनिक कहानी (डिस्क्लेमर के अनुसार) में गूंथा गया है। ये चारों किरदार नशे के खिलाफ लड़ते हैं, सबकी अपनी-अपनी वजहें हैं। और, सबकी वजहें बड़ी सार्थकता एवं मार्मिकता से दर्शायी गई हैं जिससे फिल्म की कहानी खोखली नहीं बल्कि भाव-विचार की बंधी पोटली सी लगती है। शाहिद और आलिया का अभिनय सराहनीय है। कुछ सहायक अभिनेताओं की भी प्रशंसा की जानी चाहिए। निर्देशक अभिषेक चौबे इस फिल्म के साथ और निखरकर सामने आये हैं। गानों के लेखन व संगीत को फिल्म का कमज़ोर पहलू कहा जा सकता है, लेकिन बैकग्राउंड संगीत ठीक है।
1991 में ऑलिवर स्टोन ने एक फिल्म बनायी थी दि डोर्स। यह फिल्म 60 के दशक में रॉक एंड रोल, काउंटरकल्चर और ड्रग्स की गिरफ्त वाली हिप्पी संस्कृति के आइकॉन के रूप में उभरे गायक जिमी मॉरिसन के जीवन पर आधारित थी। संगीतकारों और ड्रग्स के संबंध को दर्शाने वाली और भी कुछ फिल्में पहले बन चुकी हैं और उड़ता पंजाब में टॉमी सिंह यानी शाहिद कपूर का चरित्र ऐसी फिल्मों, खासकर दि डोर्स से प्रभावित है। दूसरी बात यह कि इसी चरित्र के गाये जाने वाले जो गाने लिखे गये हैं, वे भी कुछ अंग्रेज़ी के पॉप और रॉक गानों से प्रभावित हैं। वास्तव में, उर्दू शायरी में 500 साल का इतिहास है जिसमें शराब को दिलअज़ीज़ बताया जाता है और 1960 के बाद से अंग्रेज़ी के बहुत से पॉप और तथाकथित रॉक गानों में नशे का गुणगान मिलता है। इसे एक खास किस्म के दर्शन से जोड़कर देखा जाता है और एसकेपिस्ट यानी पलायनवादी इसे अध्यात्म का एक साधन मानते हैं। उड़ता पंजाब के कुछ पॉप गानों में इन्हीं पश्चिमी गानों की नकल करने का प्रयास दिखता है। बावजूद ऐसी नकल के, ये गाने किसी दर्शन को छू तक नहीं पाते हैं। फिल्म के एक दृश्य में टॉमी सिंह कहता भी है कि – मैं सिर्फ ड्रग्स के बारे में जानता था और इसी पर गाने बना दिये और तुम लोग उसे फिलॉसफी समझ बैठे।
यह संवाद सोचने के लिए मजबूर भी करता है कि हम बहुत सी बातों को बिना समझे ही कोई गूढ़ दर्शन समझ लेते हैं। जो हमारी कल्पना से परे है, वह शायद महान ही होगा और उसे बताने या कहने वाला कोई महान दार्शनिक ही होगा। लेकिन, अक्सर ऐसा होता नहीं। फिल्म के कुछ और संवादों में भी गहराई है। कुल-मिलाकर फिल्म देखने लायक है और देखकर समझने लायक भी।
अब बात करें फिल्म से जुड़े विवाद की। सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्म की रिलीज़ को लेकर अवरोध पैदा करने पर पहले बात की जा चुकी है, लेकिन अब फिल्म रिलीज़ के बाद सेंसर बोर्ड को कुछ प्रश्नों के उत्तर देने होंगे। वो कौन सी 89 आपत्तिजनक चीज़ें थीं जिन्हें हटाने के लिए बोर्ड सख्त हो गया था?
गालियां और अपशब्द – गानों में नशे की शब्दावली पर हम बात कर चुके हैं। वैसे भी हिन्दी फिल्मों में द्विअर्थी शब्दावली वाले गाने काफी समय से आ रहे हैं और इनमें बड़े-बड़े स्थापित प्रोडक्शन हाउस की फिल्मों के नाम भी शामिल हैं। गानों में ऐसी शब्दावली उचित है या नहीं, यदि इस पर नीति बना ली जाती है तो सभी पर एकसमान लागू होना चाहिए। आपत्ति का आधार यह नहीं होना चाहिए कि फिल्म अनुराग कश्यप की है, करण जौहर या भंसाली की। रही बात संवादों में गालियों की तो, शेखर कपूर निर्देशित बैंडिट क्वीन के बाद यह स्वीकार कर लिया गया है कि फिल्म की कहानी की ज़रूरत और मांग है तो ऐसी शब्दावली संवादों में जायज़ है। अनुराग और विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक पहले भी ऐसी फिल्मों के लिए प्रशंसा पा चुके हैं जिनमें इस तरह की शब्दावली का प्रयोग किया गया था।
पंजाब, शहरों के वास्तविक नाम और कुछ राजनीतिक शब्दों जैसे इलेक्शन, एमएलए और एमपी, को संवादों से हटाने को कहा गया था। सेंसर बोर्ड की यह आपत्ति ही आपत्तिजनक है। सेंसर का आरोप था कि इससे राज्य की छवि खराब होती है। ऐसे तो शायद हज़ारों फिल्मों से मुंबई, दिल्ली जैसे शब्द हटाने पड़ेंगे। एंथनी होप ने 19वीं सदी के आखिरी दशक में तीन किताबें लिखीं थी जिनमें कहानी का स्थान रूरिटेनिया था। यह एक काल्पनिक जगह थी। तबसे यह शब्द इतना प्रचलित हुआ कि अब तो अकादमिक शब्द बन चुका है और किसी भी उपन्यास में काल्पनिक राज्य या जगह की व्याख्या करने के लिए इसका प्रयोग होता है। जैसे बाहुबली में, माहिष्मती नामक राज्य। यानी बाहुबली एक रूरिटेनियन सेटिंग की कहानी है। लेकिन उड़ता पंजाब को रूरिटेनियन सेटिंग देना कहां तक जायज़ है? जो फिल्म, सिनेमा के माध्यम का प्रयोग केवल मनोरंजन नहीं बल्कि ज्वलंत समस्याओं को उठाने और उनके प्रति एक चेतना-संवेदना प्रसारित करने के लिए करती है, उसे भी रूरिटेनियन बना देने की कोशिश देश को काल्पनिक भ्रमजाल में फंसाने की साज़िश ही मानी जाएगी। इस तरह की आपत्ति करने वालों को तत्काल चुप करा देने का प्रबंध किया जाना चाहिए।
इस तरह की आपत्ति से यही लगता है कि देश में कोई लेखक राजनीति या अपराध के साथ राजनीति के गठजोड़ को किसी कहानी का प्लॉट नहीं बना सकता। अब सेंसर बोर्ड कलम पर पाबंदी लगाने का काम करेगा। इस विवाद के समय बोर्ड के प्रमुख पहलाज निहलाणी कहते रहे कि भाजपा की केंद्र सरकार का बोर्ड आपत्तियों से लेना-देना नहीं है। निहलाणी जी को अब जवाब देना चाहिए कि अगर ऐसा नहीं है तो यह आपत्ति क्यों ली गई? कब तक अपने आप को छुपाते रहेंगे निहलाणी जी। बोर्ड का एक और शिगूफा यह था कि पंजाब चुनाव से पहले फिल्म में इस तरह पंजाब को प्रदर्शित करना गलत हो सकता है। यह तो स्पष्ट चाटुकारिता ही है। निहलाणी जी शायद भूल गये कि आम चुनाव से ठीक पहले उन्होंने भी एक छोटी सी फिल्म बनायी थी ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’। चुनाव से पहले भाजपा के समर्थन में फिल्म बनाना ठीक है, विरोध में नहीं?
अंतिम बात यह कि हाल में भोपाल आये निहलाणी जी ने प्रेस वार्ता में एक सवाल के जवाब में कहा कि ‘ज़मीन बंजर ते औलाद कंजर’ जैसा संवाद पंजाब की संस्कृति और पहचान को भ्रष्ट करता है। पंजाब हरित क्रांति और और कृषि प्रधान राज्य है, उसके लिए ऐसा संवाद नहीं होना चाहिए। इस पर कोर्ट ने कहा था कि पंजाब इतना महान है कि इस एक संवाद से उसकी पहचान या संस्कृति को खतरा नहीं होगा। फिल्म गौर से देखें तो इस संवाद का अर्थ कुछ और ही है। यह प्रतीकों में बात करने की कला है। इस संवाद को फिल्म में पंजाब की धरती या खेती की ज़मीन से जोड़कर नहीं कहा गया है। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की कहावत को चरितार्थ करते हुए निहलाणी जी ने कोर्ट के आदेश पर प्रमाण पत्र जारी किया तो फिल्म के प्रमाण पत्र में लिखवा दिया कि यह प्रमाण पत्र माननीय हाईकोर्ट के आदेश पर जारी किया गया है। खैर, अब निहलाणी जी का एक जीके टेस्ट तो लेना ही चाहिए और जैसे भाजपा ने आडवाणी जी, जोशी जी आदि के साथ किया है, निहलाणी जी को भी रिटायर कर देना चाहिए।