पं. दीनदयाल उपाध्याय : साथियों ने ’पंडित जी’ कहकर उड़ाया था मजाक, बाद में इसी नाम से हुए प्रसिद्ध
दुनिया में कई तरह के विचारक हुए। जिनके नाम की पहचान उनके कामों से हुई। इन्हीं विचारकों में से एक नाम पं. दीनदयाल उपाध्याय का भी था। पं. दीनदयाल उपाध्याय बहुप्रतिभा के धनी थे। वे एक भारतीय विचारक ही नहीं बल्कि अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री इतिहासकार और पत्रकार भी थे। इतना ही नहीं उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माण में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई और भारतीय जनसंघ जो कि वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के नाम से जानी जाती है के अध्यक्ष भी बने।
बचपन में ही सिर से उठ गया था माता-पिता का साया
दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को राजस्थान के धन्किया में एक मध्यम वर्गीय प्रतिष्ठित हिंदू परिवार में हुआ था। उनके परदादा का नाम पंडित हरिराम उपाध्याय था, जो एक प्रख्यात ज्योतिषी थे। उनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा मां का नाम रामप्यारी था। उनके पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे और माँ बहुत ही धार्मिक विचारधारा वाली महिला थीं। इनके छोटे भाई का नाम शिवदयाल उपाध्याय था। दुर्भाग्यवश जब उनकी उम्र मात्र ढाई वर्ष की थी तो उनके पिता का असामियक निधन हो गया। इसके बाद उनका परिवार उनके नाना के साथ रहने लगा। यहां उनका परिवार दुखों से उबरने का प्रयास ही कर रहा था कि तपेदिक रोग के इलाज के दौरान उनकी माँ दो छोटे बच्चों को छोड़कर संसार से चली गयीं। सिर्फ यही नहीं जब वे मात्र 10 वर्ष के थे तो उनके नाना का भी निधन हो गया। उनके मामा ने उनका पालन पोषण अपने ही बच्चों की तरह किया। छोटी अवस्था में ही अपना ध्यान रखने के साथ-साथ उन्होंने अपने छोटे भाई के अभिभावक का दायित्व भी निभाया परन्तु दुर्भाग्य से भाई को चेचक की बीमारी हो गयी और 18 नवंबर, 1934 को उसका निधन हो गया। दीनदयाल ने कम उम्र में ही कई उतार-चढ़ाव देखे, परंतु अपने दृढ़ निश्चय से जिन्दगी में आगे बढ़े।
हर परीक्षा में आते थे अव्वल
भाई के देहांत के बाद वे हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए सीकर चले गए। सीकर के महाराजा ने पं उपाध्याय को एक स्वर्ण पदक, पुस्तकों के लिए 250 रुपये तथा प्रतिमाह 10 रुपये की छात्रवृत्ति दी। दीनदयाल जी परीक्षा में हमेशा प्रथम स्थान पर आते थे उन्होंने मैट्रिक और इण्टरमीडिएट दोनों ही परीक्षाओं में गोल्ड मैडल प्राप्त किया था। इन परीक्षाओं को पास करने के बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई करने के लिए एस.डी. कॉलेज, कानपुर में प्रवेश लिया वहां उनकी मुलाकात श्री सुन्दरसिंह भण्डारी, बलवंत महासिंघे जैसे कई लोगों से हुई। इन लोगों से मुलाकात होने के बाद दीनदयाल जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रमों में रुचि लेने लगे। इसी बीच दीनदयाल जी की चचेरी बहन रमा देवी बीमार पड़ गयीं और वे इलाज कराने के लिए आगरा चली गयीं, जहां उनकी मृत्यु हो गयी। दीनदयालजी इस घटना से बहुत उदास रहने लगे और एम.ए. की परीक्षा नहीं दे सके। इस बीच सीकर के महाराजा और श्री बिड़ला से मिलने वाली छात्रवृत्ति भी बन्द कर दी गई।
धोती-कुर्ता पहनने पर उड़ा था मज़ाक
एक बार उन्होंने अपनी चाची के कहने पर धोती तथा कुर्ते में और अपने सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी जबकि उसी परीक्षा में दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए थे। उम्मीदवारों ने मजाक में उन्हें ’पंडित जी’ कहकर पुकारा। यह एक उपनाम था जिसे लाखों लोगों ने बाद में उन्हें सम्मान और प्यार देने के लिए उपयोग किया। इस परीक्षा में वे चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपर रहे। वे अपने चाचा की अनुमति लेकर बेसिक ट्रेनिंग करने के लिए प्रयाग चले गए और प्रयाग में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेना जारी रखा। बेसिक ट्रेनिंग पूरी करने के बाद वे पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में जुट गए और प्रचारक के रूप में जिला लखीमपुर (उत्तर प्रदेश) चले गए। सन् 1955 में वे उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय प्रचारक बन गए।
जनसंघ के साथ उनका सम्बन्ध
भारतीय जनसंघ की स्थापना डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा वर्ष 1951 में किया गया एवं दीनदयाल उपाध्याय को प्रथम महासचिव नियुक्त किया गया। वे लगातार दिसंबर 1967 तक जनसंघ के महासचिव बने रहे। उनकी कार्यक्षमता, खुफिया गतिधियों और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि, ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’। परंतु अचानक वर्ष 1953 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के असमय निधन से पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के युवा कंधों पर आ गयी। इस प्रकार उन्होंने लगभग 15 वर्षों तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की। भारतीय जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय को दिसंबर 1967 में कालीकट में जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया।
एक लेखक के रूप में
दीनदयाल उपाध्याय के अन्दर की पत्रकारिता तब प्रकट हुई जब उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ में वर्ष 1940 के दशक में कार्य किया। अपने आर.एस.एस. के कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पांचजन्य’ और एक दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेश’ शुरू किया था। उन्होंने नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. के.बी. हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया। उनकी अन्य प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में ‘सम्राट चंद्रगुप्त’, ‘जगतगुरू शंकराचार्य’, ‘अखंड भारत क्यों हैं’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ आदि हैं।
51 साल की उम्र में हुआ निधन
19 दिसंबर 1967 में दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया पर नीयति को कुछ और ही मंजूर था। 11 फ़रवरी, 1968 की सुबह मुग़ल सराय रेलवे स्टेशन पर दीनदयाल का निष्प्राण शरीर पाया गया। इसे सुनकर पूरा देश दुःख में डूब गया। इस महान नेता को श्रद्धांजलि देने के लिए राजेंद्र प्रसाद मार्ग पर भीड़ उमड़ पड़ी। उन्हें 12 फरवरी, 1968 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई द्वारा श्रद्धांजलि अर्पित की गई। आजतक उनकी मौत एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है।