Saturday, September 9th, 2017 11:58:25
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एक ऐसा शख्स जिसने रच दिया था ‘मुर्दों का गाँव’   




एक ऐसा शख्स जिसने रच दिया था ‘मुर्दों का गाँव’   Art & Culture

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“हाय मैं नहीं, मुझमें एक वही तो है

जो हर बार टूटा है, हर बार बचा है,

मैंने नहीं बल्कि उसने ही मुझे जिया है

पीड़ा में, पराजय में, सुख की उदासी में,

लक्ष्यहीन भटकन में, मिथ्या की तृप्ति तक में,

उसी ने कचोटा है, उसी ने रचा है !”

“उसी ने रचा है” की इन चाँद लाइनों के साथ आज आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक, धर्मवीर भारती को आज उनकी पुण्यतिथि पर हम याद करते हैं। आज के दिन हर भारती जी को हर वो इंसान याद करना चाहेगा जो साहित्य और साहित्य में रचित प्रेम भावनाओं को मानता और समझता है। क्योंकि धर्मवीर भारती एक ऐसे साहित्यकार थे जिनके लेखन में प्रेम भाव से लेकर हास्य और व्यंग भी झलक भी देखने को मिलती है। भारती जी का जीवन और उनकी रचनाएं बहुत से लोगो के लिए प्रेरणा हैं और हो सकता है कि आपको भी अपने जीवन के लिए कुछ प्रेरक मिल जाए इनके जीवन से।

तो आइये और करीब से जाने धर्मवीर भारती जी के बारे में-

धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद के ‘अतरसुइया’ नामक मोहल्ले में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री। चिरंजीवलाल वर्मा और माता का नाम श्रीमती चंदादेवी था। इनके बचपन में इनकी माताजी बहुत बीमार हुई और चल बसीं, माँ के इलाज में पिता पर बहुत कर्ज हो गया और वो भी पत्नी वियोग और कर्ज से टूट कर चल बसे।

धर्मवीर भारती जी की स्कूली शिक्षा डी। ए वी हाई स्कूल में हुई और उच्च शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में। प्रथम श्रेणी में एम ए करने के बाद डॉ॰ धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य पर शोध-प्रबंध लिखकर उन्होंने पी-एच०डी० प्राप्त की। घर और स्कूल से प्राप्त आर्यसमाजी संस्कार, इलाहाबाद और विश्वविद्यालय का साहित्यिक वातावरण, देश भर में होने वाली राजनैतिक हलचलें, बचपन में ही पिता की मृत्यु और उससे आया आर्थिक संकट इन सबने उन्हें अतिसंवेदनशील और तर्कशील बना दिया। उन्हें जीवन में दो ही शौक थे : पढ़ना और यात्रा करना। भारती के साहित्य में उनके विशद अध्ययन और यात्रा-अनुभवोंं का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।

जब धर्मवीर भारती फफक कर रों पड़े-

धर्मवर भारती के संस्मरण में एक कहानी ये भी मशहूर है कि एक बार अपने सहयोगी या यूँ कहे की छोटे भाई के समान मित्र ने, उनकी लिखी कुछ लाइनों के बारे में पूंछा-

“रख दिए तुमने नजर में बादलों को साधकर

आज माथे पर, सरल संगीत से निर्मित अधर

आरती के दीपकों की झिलमिलाती छांह में

बांसुरी रक्खी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर।”

यह  प्रश्न सुनकर तो मानो उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि उनकी दुखती रत पर किसी ने प्रहार कर दिया हो, और भारती जी फफक कर रो पड़े। और कहा जाता है कि शायद भारती जी कांता कोहली के लिए रोए होंगे या फिर ‘कनुप्रिया’ के लिए, जिनके विरह में वे उन दिनों बौरा गए थे।

पत्रकारिता के शिखर पुरुष-

धर्मवीर भारती के द्वारा संपादित ‘धर्मयुग’ पत्रकारिता की कसौटी बन चुका है। आज के पत्रकारिता के विद्यार्थी उनकी शैली को ‘धर्मवीर भारती स्कूल ऑफ़ जर्नलिज़्म’ के नाम से जानते हैं। धर्मवीर भर्ती ने कई साहित्यिक रचनाएँ की लेकिन उनके द्वारा रचित गुनाहों का देवता एक ऐसी रचना है जो सदाबहार मानी जाती है. धर्मवीर जी १९७२ में पद्मश्री से अलंकृत हैं और साहित्य के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए अपने जीवन काल में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हुए।

गुनाहों के देवता की कहानी का सार-

“गुनाहों का देवता” की कहानी का जो नायक है, उसकी प्रेम कहानी को बड़े ही रोचक ढंग से रचा है भारती जी ने। गुनाहों के देवता का मुख्य नायक चंदर है जो सुधा से प्रेम तो करता है, लेकिन सुधा के पिता के, उस पर किए गए एहसान और व्यक्तित्व पर हावी उसके आदर्श कुछ ऐसा ताना-बाना बुनते हैं कि वह चाहते हुए भी कभी अपने मन की बात सुधा से नहीं कह पाता। सुधा की नजरों में वह देवता बने रहना चाहता है और होता भी यही है। सुधा से उसका नाता वैसा ही है, जैसा एक देवता और भक्त का होता है। प्रेम को लेकर चंदर का द्वंद्व उपन्यास के ज्यादातर हिस्से में बना रहता है। नतीजा यह होता है कि सुधा की शादी कहीं और हो जाती है और अंत में उसे दुनिया छोड़कर जाना पड़ता है।

इस पूरी कहानी में धर्मवीर जी ने चंदर के अंतरंग लम्हों का गहराई से चित्रण तो किया है लेकिन पूरी सावधानी के साथ। पूरे प्रसंग में थोड़ा सेक्सुअल टच तो है, पर वल्गैरिटी कहीं नहीं है, इस कहानी को पढ़ते समय पाठक को सिहरन तो महसूस होती है, लेकिन यह उत्तेजित नहीं करती।

मुर्दों का गाँव की कहानी के कुछ अंश-

उस गाँव के बारे में अजीब अफवाहें फैली थीं। लोग कहते थे कि वहाँ दिन में भी मौत का एक काला साया रोशनी पर पड़ा रहता है। शाम होते ही कब्रें जम्हाइयाँ लेने लगती हैं और भूखे कंकाल अँधेरे का लबादा ओढ़कर सड़कों, पगडंडियों और खेतों की मेड़ों पर खाने की तलाश में घूमा करते हैं। उनके ढीले पंजरों की खड़खड़ाहट सुनकर लाशों के चारों ओर चिल्लाने वाले घिनौने सियार सहमकर चुप हो जाते हैं और गोश्तखो गिद्धों के बच्चे डैनों में सिर ढाँपकर सूखे ठूँठों की कोटरों में छिप जाते हैं। और इसी से जब अखिल ने कहा कि चलो उस गाँव के आँकड़े भी तैयार कर लें, तो मैं एक बार काँप गया। बहुत मुश्किल से पास के गाँव का एक लड़का साथ जाने को तैयार हुआ। सामने दो मील की दूरी पर पेड़ों की झुरमुटों में उस गाँव की झलक दिखाई दी। मील भर पहले से ही खेतों में लाशें मिलने लगीं। गाँव के नजदीक पहुँचते-पहुँचते तो यह हाल हो गया कि मालूम पड़ता था भूख ने इस गाँव के चारों ओर मौत के बीज बोए थे और आज सड़ी लाशों की फसल लहलहा रही है। कुत्ते, गिद्ध, सियार और कौवे उस फसल का पूरा फायदा उठा रहे हैं। इतने में हवा का एक तेज झौंका आया और बदबू से हमारा सिर घूम गया। मगर फिर जैसे उस दुर्गंध से लदकर हवा के भारी और अधमरे झौंके सूखे बाँसों के झुरमुटों में अटककर रूक गए। और सामने मुर्दो के गाँव का पहला झोंपड़ा दिख पड़ा। तीन और दीवारें गिर गई थीं और एक ओर की दीवार के सहारे आधा छप्पर लटक रहा था। दीवार की आड़ में एक कंकाल पड़ा था…

धर्मवीर भारती जी की अन्य रचनाएँ-

कहानी संग्रह : स्वर्ग और पृथ्वी, चाद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान, सास की कलम से, समस्त कहानियाँ एक साथ

काव्य रचनाएँ : ठंडा लोहा, सात गीत, वर्ष कनुप्रिया, सपना अभी भी, आद्यन्त

उपन्यास : गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा, ग्यारह सपनों का देश, प्रारंभ व समापन

निबंध : ठेले पर हिमालय, पश्यंती

कहानियाँ : अनकही, नदी प्यासी थी, नील झील, मानव मूल्य और साहित्य, ठण्डा लोहा

पद्य नाटक : अंधा युग

आलोचना : प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव मूल्य और साहित्य

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