जिसकी सरकार वही लाचार – राजनीतिक व्यथा
जनता की चुनी सरकार, देश की बागडोर उनके हाथ। कब, कहां, क्या करना है सब कुछ होता है उनके हाथ। पूरा सरकारी लबाज़मा उनके साथ, फिर भी कई मौकों पर उन्हें ही होती है कम्पलेंट्स कि ढंग से नहीं हो रहा है काम। कम्पलेंट होना गलत नहीं है किंतु उसे जनता के सामने, मीडिया तंत्र के सामने जिस प्रकार से शो ऑफ किया जाता है वह बड़ा ही हास्यास्पद लगता है। जनता अब और क्या कर सकती है जबकि उनको चुनकर सरकार में भेज दिया, सारी कानून व्यवस्था उनको दे दी गई, उसको अमल में लाने वाला तंत्र उनके हाथों में सौंप दिया गया। अब उससे ज्यादा जनता क्या कर सकती है? ऐसे में सरकार के बंदे राजनीतिक लोगों का जनता के आगे रोना बड़ा ही हास्यास्पद लगता है।
आए दिन हमें इस प्रकार की घटना देखने को मिलती है। दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री व पूरी आप सरकार आए दिनों सरकार के पास अधिकार नहीं होने का रोना रोते रहते हैं। जब उन्होंने चुनाव लड़ा, सरकार बनाई क्या तब उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था? अब उनका रोना बेकार सा लगता है। कभी प्रदेश के शिक्षा मंत्री अपने ही तंत्र की कमियां रोते रहते हैं वहीं देश के एक प्रमुख भाजपा नेता का भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना भी हास्यास्पद लगता है। जब कांग्रेस की सरकार थी तब राहुल गांधी द्वारा अपनी ही सरकार का बिल प्रस्ताव भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ दिया गया था। ऐसे अनगिनत मौके हमें देखने-सुनने में आते रहते हैं। विपक्ष रोना रोए तो समझ में आता है किंतु सरकार स्वयं रोए तो क्या समझें? सरकार में बैठे लोगों का स्वयं विपक्ष की तरह रोना बड़ा अजीब लगता है। फिर भी ऐसा अक्सर हर जगह होता रहता है।
अब इन सबके मायने क्या समझे जाएं? या तो ये नाकाबिल हैं जो सरकार के रूप में कार्य को नहीं संभाल पा रहे हैं या ये जनता को मूर्ख समझ रहे हैं। जब चुनाव का वक्त आता है तो बड़े-बड़े कार्यों को करने का दंभ भरते हैं और जैसे ही सरकार में पहुंचते हैं तो कई कार्य न कर पाने के एक हज़ार बहाने दिखाई देने लगते हैं। ऐसे लोगों को जनता ने अपना फैसला भी सुनाया है, अपनी समझदारी का परिचय भी दिया है फिर भी ये इन सब से बाज़ नहीं आते। इन्हें तो जनता मूर्ख ही लगती है। चुनाव के वक्त कुछ टुकड़े फेंक दो और चुनाव जीत लो। ’जनता के सम्मुख टुकड़े फेंक दो’ वाक्य का इस्तेमाल एक दिन पूर्व ही हमारे प्रधानमंत्री ने किया है जिसे सभी मीडिया ने प्रमुखता से दिखाया है। ये इनके अंदर की ’मन की बात’ को बतला रहा है। वैसे तो हमारे यही प्रधानमंत्री ’मन की बात’ में आए दिनों संत वाणी बोलते नज़र आते हैं। अलबत्ता तो ये उनका कार्य नहीं है। हाल-फिलहाल उन्हें सरकार चलाना चाहिए, इस देश को विकास की गति देना चाहिए, सरकार के कार्यों पर सारा कार्य फोकस करना चाहिए। संत वाणी देने का इतना ही मन हो तो सरकार से हटकर संत बन जाएं तो बेहतर होगा। जनता ने उन्हें संत वाणी सुनने के लिए नहीं बल्कि इस देश को चलाने व नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने का कार्य दे रखा है। ऐसे ही सरकार में बैठे सभी राजनेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि वे सरकार में रहकर कितना अच्छा कार्य कर सकते हैं। जो उम्मीदें जनता को उनसे हैं उस पर कितना अधिक काम कर सकते हैं, उस पर अपना ध्यान केंद्रित करें तो बेहतर होगा। यदि सरकारी तंत्र ठीक ठंग से कार्य नहीं करता है, भ्रष्टाचार में लिप्त है तो उन्हें ठीक करने के पावर भी जनता ने उन्हें दे रखे हैं। वे जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए सरकार में भेजे गए हैं। जनता को उन्हें अपने कार्यों से जवाब देना है न कि रोना सुनना है।