रावण जलाते-जलाते हम भी रावण हो गए
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सदियों से जला रहे हैं रावण, एक बुराई के प्रतीक के रूप में। हर वर्ष सोचते हैं कि हम रावण नहीं बल्कि प्रतीक स्वरूप अपनी बुराईयां जला रहे हैं किंतु प्रश्न आज भी वहीं खड़ा है कि क्या हम वाकई अपनी बुराईयां जला पाए? रावण तो हर वर्ष बड़े धूम-धाम से जलता है, वह भी बड़े से बड़े आकार का। उसकी ऊंचाई दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। जैसे-जैसे रावण की ऊंचाई बढ़ रही है वैसे-वैसे हमारी बुराईयां भी बढ़ रही हैं। हां, फ़र्क इतना है कि हम रावण में तो बत्ती लगा आते हैं किंतु स्वयं की बुराईयों में नहीं। दूसरों की बुराईयां निकालने में, उसको बत्ती देने में तो हमें बहुत मज़ा आता है जैसे कि रावण को हर वर्ष जला कर हम बहुत मज़े लेते हैं, बहुत ही आनंद का अनुभव करते हैं। स्वयं कितने भी बुराईयों के पुतले हो जाएं, अच्छे-भले ही लगते हैं। कभी ख़ुद की बुराई जला कर देखी है? ख़ुद में बत्ती लगाकर देखी है? डर लगता है सोच कर भी। दूसरे की बुराईयां देखना, उसमें बत्ती लगाकर मज़े लेना तो बहुत अच्छा लगता है। एक बार स्वयं की तरफ़ देख लेते तो शायद रावण को दोबारा जलाने की नौबत ही नहीं आती।
एक नज़र हम ख़ुद पर डालें तो बुराई के सबसे बड़े पुतले तो हम ही नज़र आएंगे। जन्म से लेकर मृत्यु तक हम में बुराईयां ही नज़र आएंगी। अमानुष काल से चले हम कब घूम कर अमानुष काल में ही आ गए, ये हमें भी पता नहीं चला। किंतु यही हक़ीकत है। पहले तो हम अनजान थे, नादान थे, अनपढ़ थे किंतु अब तो हम पढ़-लिखकर समझदार अमानुष हो गए हैं। आज के हमारे कर्म माफी योग्य भी नहीं हैं। रावण ने तो सिर्फ़ सीता का अपहरण किया था, वह अहंकार भाव में आ गया था। किंतु हम क्या कर रहे हैं? रेप के केस दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। कन्या भ्रूण हत्या का ग्राफ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। पैसे के लिए हम कुछ भी करने को तैयार हैं फिर चाहे वो किसी की हत्या ही क्यों न हो। डकैती-लूटमारी तो आम बात सी हो गई है। लड़की की शादी की बात आती है तो वो पैसे वाले लड़के को ही पसंद करती है फिर चाहे वो गलत तरीके से ही पैसा क्यों न कमाता हो। वहां घूसखोरी, धोखेबाज़ी गलत नज़र नहीं आती। कालेधन का जन्म यहीं से होता है। समाज में भी ईमानदारी पर पैसा भारी नज़र आता है। ऐसी अनगिनत बुराईयों के जन्मदाता तो हम ही हैं फिर भी हमें दूसरा ही बुराई का पुतला नज़र आता है। बार-बार रावण जलाने से कुछ नहीं होगा। यह महज़ एक मनोरंजन का साधन बनकर रह गया है। यदि हम वाकई बुराईयों को ख़त्म करने की सोच रहे हैं तो हमें अपने अंदर के छिपे दानव को ख़त्म करना होगा न कि रावण को। दूसरों में बुराई ढूंढने की बजाए ख़ुद की बुराईयों का अंत करना पड़ेगा।
जग जलाए ख़ुद जले,
ख़ुद जगाए जग जगे।
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