देशद्रोह, छात्र और राजनीति
सरकार अगर छात्रों के मौजूदा आंदोलन से समझदारी से नहीं निपटी तो उसके लिए हालात मुश्किल हो सकते हैं। इसके अलावा सरकार को देशद्रोह का आरोप लगाने के पहले भी गहराई से सोचना चाहिए। इस आरोप को इतना हल्का नहीं बनाया जाना चाहिए कि यह कहीं भी प्रयोग कर लिया जाए।
इन दिनों देश में एक शब्द बहुत चर्चा में है- देशद्रोह। दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर दिल्ली पुलिस ने देशद्रोह की धारा लगाई है। उन पर इल्जाम है कि वह विश्वविद्यालय परिसर में देशविरोधी नारे लगा रहे लोगों के साथ मौजूद थे। आरोप के मुताबिक वह जिस समारोह में थे वह संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी के विरोध में आयोजित किया गया था।
आइए जानते हैं देशद्रोह के कानून के बारे में:
भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 124 ए के तहत राष्ट्र विरोध के मामले दर्ज किए जाते हैं। इसके मुताबिक कोई भी ऐसा काम जो देश के खिलाफ हिंसा भड़काने के लिए प्रेरित करता हो, उसे देशद्रोह के खाते में डाला जा सकता है। केदारनाथ सिंह के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे और स्पष्ट किया और कहा कि ऐसे मामलों में दंड तभी दिया जा सकता है जब यह साबित हो जाए कि देश विरोधी बातें कर रहा व्यक्ति दरअसल ऐसी हिंसा भड़काने की वकालत कर रहा था जो पूरी तरह कानून को तोड़ते हुए देश में व्यापक अशांति पैदा कर सकती हो।
क्या है देशद्रोह?
वरिष्ठ अधिवक्ता साजी थॉमस कहते हैं कि क्रांति का आहवान करना या हिंसा के जरिए सत्ता को उखाड़ फेंकने का आहवान करना तक देशद्रोह के दायरे में तब तक नहीं आता है जब तक कि ऐसा कहने वाला व्यक्ति इसके लिए किसी तरह का प्रलोभन अन्य लोगों को नहीं दे रहा हो। याद रहे कि बलवंत सिंह बनाम पंजाब सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने खालिस्तान जिंदाबाद और राज करेगा खालासा जैसे नारे लगाने वाले व्यक्ति पर से देशद्रोह के इल्जाम वापस ले लिए थे। इस व्यक्ति ने ये नारे चंडीगढ़ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के कुछ घंटे बाद लगाए थे।
कब नहीं है देशद्रोह?
कानून कहता है कि शब्द आपराधिक हो सकते हैं और इनके लिए दंडित किया जाना चाहिए लेकिन इसे देशद्रोह नहीं माना जा सकता। स्पष्ट है कि जब तक इरादा साबित न हो तब तक शब्द चाहे जितने बुरे क्यों न हों देशद्रोह का आरोप साबित नहीं करते।
बात छात्र आंदोलनों की
हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या, बीएचयू से संदीप पांडेय के निष्कासन और जेएनयू में कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद देश में छात्र काफी भड़के हुए हैं। उल्लेखनीय है कि देश में जब-जब छात्र आंदोलन पैदा हुए हैं तब-तब देश की राजनीति में निर्णायक बदलाव आया है। याद कीजिये सन 1970 के दशक में पटना के गांधी मैदान से लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्त्व में शुरू हुआ छात्र आंदोलन जिसने तत्कालीन इंदिरा सरकार को घुटनों पर ला दिया था।
इसके पश्चात विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व में जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुई थीं तो उनकी सरकार भी गिर गई थी।
ऐसे में मोदी सरकार छात्रों के मौजूदा आंदोलन को अगर हल्के में लेती है तो वह बहुत गलती करेगी। हार्दिक पटेल के नेतृत्व में हुए पाटीदार आंदोलन में भी सबसे अधिक संख्या युवाओं की ही थी। राजधानी में तो छात्र पहले से ही ऑक्युपाई यूजीसी के नाम से लंबा आंदोलन छेड़े हुए है। वैसे में अगर सरकार समझदारी से काम नहीं लेती है तो कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी उसे बहुत भारी पड़ सकती है। सरकार को चाहिए कि वह छात्रों की मांगों को सुने और समझे।
वरिष्ठ पत्रकार रमाकांत त्रिवेदी कहते हैं कि छात्र स्वभाव से भावुक होते हैं। अगर उन्होंने उत्तेजना में आकर कुछ गलत बोल भी दिया है तो बड़प्पन इसी में है कि सरकार इसकी अनदेखी कर दे। अगर सरकार बदला लेने पर उतारू हो जाएगी तो उसके लिए हालात बहुत मुश्किल हो जाएगी।
वह मानते हैं कि कन्हैया कुमार एक प्रभावशाली वक्ता हैं और अगर सरकार इसी तरह से बेवकूफाना अंदाज में पेश आती रही तो अरविंद केजरीवाल और हार्दिक पटेल के बाद केंद्र सरकार के लिए एक और चुनौती कन्हैया कुमार के रूप में पैदा हो जाएगी। वह यह भी कहते हैं कि यह आंदोलन देश में वाम राजनीति को नए सिरे से अमृत प्रदान कर सकता है जबकि उसकी हालत अभी ठीक नहीं है।
उल्लेखनीय है कि आज देश की राजनीति में कई ऐसे बड़े नाम हैं जो छात्र राजनीति से ही राष्ट्रीय राजनीति में आए हैं। शरद यादव, लालू प्रसाद, सीताराम येचुरी, प्रकाश करात आदि दिग्गज नेता छात्र राजनीति की ही देन हैं।
