परदे पर फिर ‘गांधी’ को जीवंत बना गए थे रिचर्ड
रिचर्ड एटनबरो फिल्मी दुनिया की कभी न भुलाई जाने वाली हस्तियों में से एक हैं। वैसे तो उन्होंने सिनेमा को कई नायाब तोहफे दिए मगर हिन्दुस्तान में उन्हें हमेशा उनकी कालजयी फिल्म ‘गांधी’ के लिए याद किया जाएगा। उन्होंने फिल्मों के डायरेक्शन से लेकर एक्टिंग में भी किस्मत आज़माई। इतना ही नहीं, वे ‘रॉयल अकादमी ऑफ ड्रैमेटिक आर्ट्स’ और ‘ब्रिटिश अकादमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविज़न आर्ट्स’ (बाफता अवार्ड्स) के अध्यक्ष भी थे जो कि अपने आप में एक बहुत ही गरिमामय पद है। अपनी अदाकारी से समीक्षकों को लुभाने वाले और फिल्मों द्वारा इतिहास को जीवित रखने वाले रिचर्ड एटनबरो का सोमवार 29 अगस्त को जन्मदिन है। इस उपलक्ष्य पर आइये जानते हैं उनके जीवन के कुछ किस्से और बातें-
सेना में भी किया रिचर्ड ने काम
आपको जान कर हैरानी होगी कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रिचर्ड ने इंग्लैंड की ‘रॉयल एयर फोर्स’ में भी काम किया। पायलट की ट्रेनिंग खत्म करने के बाद उन्हें ‘रॉयल एयर फोर्स फिल्म यूनिट’ में कार्य सौंपा गया। वहां अधिकारियों के साथ फिल्मिंग करते हुए उन्होंने कैमरा चलाना और डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की बारीकियों को सीखा। उसके बाद वे स्वेच्छा से लड़ाकू विमानों में पायलट के साथ जा कर विश्व युद्ध से मची तबाही को फिल्माते थे।
रिचर्ड के फिल्मी सफ़र की शुरूआत
बतौर एक्टर रिचर्ड ने सिनेमा की दुनिया में कदम रखा। उनके सफ़र की शुरुआत 1942 में हुई। नोइल कोवार्ड की फिल्म ‘इन विच वी सर्व’ में उन्होंने एक नाविक की भूमिका निभाई थी। उन्हें इस रोल के लिए गलती से क्रेडिट भी नहीं दिया गया था। दरअसल उन्हें क्रेडिट तो दिया गया था मगर फाइनल लिस्ट में कुछ गड़बड़ी के कारण उनका नाम आया ही नहीं और फिल्म रिलीज़ भी हो गई। इसके बाद चार-पांच सालों तक उन्होंने कुछ फिल्में की मगर उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। 1947 में आई उनकी फिल्म ‘ब्रिगटर रॉक’ में उनके अभिनय को समीक्षकों द्वारा सराहा गया और रिचर्ड का नाम ए-लिस्ट एक्टर्स की सूची में शामिल हो गया। उसके बाद रिचर्ड ने ‘मॉर्निंग डिपार्चर’, ‘हैल इज़ सोल्ड आउट’ जैसी बहुत सी सफल फिल्में कीं। उन्होंने अगाथा क्रिस्टी के लिखे नॉवल ‘द माउसट्रेप’ पर आधारित शिएटर प्ले में लीड रोल किया। यह प्ले दुनिया में आज तक सबसे ज्यादा शोज़ करने वाला और सबसे लम्बा चलने वाला प्ले है। इसका नाम वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में भी शामिल है।
1960 से सफलता का नया दौर
1960 के दशक में रिचर्ड ने सफलता का स्वाद चखा। 1963 में उन्होंने अमेरिकी फिल्म ‘द ग्रेट एसकेप’ में मुख्य भूमिका निभाई और इस फिल्म ने उन्हें अमेरिका में भी पॉपुलर कर दिया। उन्हें कई अवार्ड मिले। इसके बाद लगातार सफल फिल्मों का यह दौर चलता ही रहा। ‘द सेंड पेबल्स’ और ‘डॉ डोलिटिल’ जैसी फिल्मों ने उन्हें और मशहूर कर दिया। बतौर डायरेक्टर उन्होंने 1969 में अपनी पहली फिल्म ‘ओह! वॉट अ वंडरफुल वॉर’ बनाई। 1972 में उन्होंने ‘विंस्टन चर्चिल’ पर बायोपिक फिल्म ‘यंग विंस्टन’ डायरेक्ट की जिसे वर्ल्ड सिनेमा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध पर आधारित उनकी अगली फिल्म ‘अ ब्रिज टु फार’ को भी सराहा गया। फिर उन्होंने अमेरिकी फिल्मों में भी काम किया। 1993 में स्टीवन स्पिलबर्ग की फिल्म ‘ज्यूरासिक पार्क’ में भी काम किया। उन्होंने ‘रॉर्बट ब्राउनी जूनियर’ को लेकर चार्ली चैपलीन के जीवन पर भी एक बायोपिक बनाई। गौरतलब है कि रिचर्ड ने बतौर एक्टर और डायरेक्टर जितनी भी फिल्में की वे सब या तो वॉर पीरियड ड्रामा थीं या फिर किसी के जीवन पर आधारित बायोपिक थीं।
गांधी और उनके प्रति रिचर्ड का जुनून
1982 में रिचर्ड ने अंततः ‘महात्मा गांधी के जीवन पर एक बायोपिक बनाने का अपना सपना पूरा किया। यही वो फिल्म थी जिसने रिचर्ड के करियर को नई उड़ान दी और उन्हें सफलता के नए मुकाम पर पहुंचा दिया और क्यों न हो, रिचर्ड ने इस फिल्म को अपनी जिंदगी के 20 साल दिए हैं। 20 साल तक उन्होंने महात्मा गांधी के जीवन पर रिसर्च की। सैंकड़ो बार भारत आए, जिसने जिससे मिलने के लिए कहा उससे मिले। दर्जनों बार नेहरू जी से मुलाकातें हुईं। हर दिन रिचर्ड ने इस सपने को जिया। उनके ऑफिस में, घर में, हर जगह फाइलें, अखबारों की कतरने, गांधीजी की तस्वीरें बिखरी पड़ी होती थीं। उन्होंने गांधी की सोच को, उनके विचारों को, अपने जीवन में उतारा, उनकी गहराईयों को समझा और तब जाकर ‘गांधी’ की स्क्रिप्ट तैयार हुई। गांधी उनके लिए फिल्म का विषय नहीं विश्वास का विषय थे।
इस फिल्म को बनाते-बनाते रिचर्ड के हालात वैसे हो गए थे जैसे कि राज कपूर के हालात ‘मेरा नाम जोकर’ बनाते वक्त हुए थे। रिचर्ड आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे थे। उन्होंने अपना लंदन का घर गिरवी रख दिया, कलाकृतियों का अपना अनोखा संग्रह बेच दिया, बरसों से चले आ रहे अपने शो ‘द माउसट्रेप’ के शेयर भी बेच दिये, तब जा कर ‘गांधी’ का निर्माण हुआ। कमर्शियल एक्टर्स को छोड़ कर उन्होंने ‘बेन किंग्सले’ जैसे साधारण एक्टर को गांधी का लिबास पहनाया। जिसने गांधी को अपनी आंखो से असल में न देखा हो उसके लिए बेन ही गांधी की जीती-जागती तस्वीर हैं। बहुत मश्क़्कतों के बाद गांधी रिलीज़ हुई और महात्मा गांधी का जैसे पुनर्जन्म हुआ। इस कालजयी फिल्म को 8 ‘ऑस्कर’ अवॉर्ड से नवाज़ा गया। दुनियाभर से रिचर्ड को अनेक अवॉर्ड मिले। भारत सरकार द्वारा भी उन्हें सिनेमा में इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए ‘पदम्श्री’ से सम्मानित किया गया।
निजी ज़िंदगी और जीवन के अंतिम दिन
1945 में उन्होंने एक्ट्रेस ‘शेइला सिम’ से शादी की। शादी के बाद से लेकर 2012 तक वे दोनों लंदन में रिचमंड ग्रीन स्थित ‘बीवर लॉज’ में रहते थे। रिचर्ड ‘चेलसा फुटबॉल कल्ब’ के प्रेसिडेंट भी थे। 26 दिसंबर 2004 में उनकी बड़ी बेटी ‘जेन होलैंड’ और 15 साल की नातिन ‘लूसी’ थाईलैंड छुट्टियां मनाने गए थे मगर दुर्भाग्यवश वहां हिन्द महासागर में आई सुनामी की चपेट में आकर उनकी मौत हो गई। रिचर्ड अपनी बेटी की मौत से टूट से गए थे। उन्होंने अपनी आखि़री इच्छा के तौर पर कहा था कि ‘‘मुझे दफन मत करना, मेरे शरीर को जलाकर मेरी अस्थियां मेरी बेटी और लूसी की कब्र के बगल में एक कब्र बना कर रख देना। मैं सदा के लिए उसके साथ रहना चाहता हूं।
अगस्त 2008 में हार्ट अटैक आने की वजह से उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करवाया गया था। उसके बाद से उनकी तबीयत दिन-ब-दिन बिगड़ती ही जा रही थी। उन्हें व्हील चेयर का सहारा लेना पड़ा और उनके भाई ने मीडिया से कहा – ‘रिचर्ड अब कोई फिल्म नहीं बनाएंगे’। 2012 में रिचर्ड और उनकी वाइफ, दोनों ही गंभीर रूप से बीमार थे। उन्हें अपना घर बेच कर एक नर्सिंग होम में शिफ्ट होना पड़ा ताकि पूरे समय उनकी देखभाल की जा सके। अपने 91वें जन्मदिन से महज़ पांच दिन पहले, 24 अगस्त 2014 को रिचर्ड एटनबरो इस दुनिया को अलविदा कह गए। रिचर्ड तो हमारे बीच नहीं रहे मगर उनकी विरासत के तौर पर ‘गांधी’ और अनेक फिल्में हमारे बीच हमेशा मौजूद रहेंगी और हमें उनकी याद दिलाती रहेंगी।