Saturday, September 9th, 2017 05:33:58
Flash

इंसान ही स्वयं का गुरु बन सकता है




इंसान ही स्वयं का गुरु बन सकता हैSpiritual

Sponsored




ज्ञान को उसके अंतिम सिरे तक प्राप्त करना ही किसी मनुष्य का मूल उद्देश्य है। अर्थात जब व्यक्ति की तमाम जिज्ञासाओं का अंत हो जाए तब ही माना जाएगा कि उसने चरम ज्ञान को प्राप्त कर लिया है। और इस चरम ज्ञान को प्राप्त कर लेना ही किसी इंसान का मूल धर्म है। हाल के काल में कथित आध्यात्मिक संतों द्वारा दुराचार कर जेल जाने जैसे समाचार निरंतर आ रहे हैं, हालांकि वे अधिकृत तौर पर किसी धर्म के गुरु नहीं हैं, वे सिर्फ और सिर्फ एक दुकान से बढ़ कर कुछ नहीं हैं। बिचौलियों द्वारा ज्ञान पर कब्ज़ा जमाते जाना और अपने मन के अनुरूप इसमें फेर-बदल करते जाना। और ज्ञान-पिपासु और ज्ञान के बीच कर्मकांड, पाखंड, ऊंच–नीच और आडंबर की खाई पाट दिया जाना। यह खाई सिर्फ इसलिए पाटी गई ताकि ज्ञान-पिपासु और ज्ञान के बीच एक दुकान स्थापित की जा सके। मध्यस्थ के रूप में गुरु, बाबा अथवा कर्मकांडी की भूमिका को महान बनाया जा सके। ऐसे मैं सामान्य व्यक्ति आध्यात्म की राह में अकेला था और अकेला ही रहेगा, यह बात पुनः शास्वत सत्य साबित हुई है। स्वानुभूत दर्शन से स्वयं को स्वयं का गुरु मानकर अपने अंदर मौजूद चरम ज्ञान तक पहुंचना, या पहुँचने की कोशिश करना बहुत महत्वपूर्ण सार है।

इंसान ही स्वयं का गुरु बन सकता है, क्योंकि दुनिया के प्रत्येक जीव में जन्म से ही चरम ज्ञान होता है, लेकिन वह उसका स्मरण नहीं रख पाता। उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उसे स्वयं ही प्रयास एवं प्रयत्न करने होते हैं, कोई अन्य उसे विवश नहीं कर सकता। एक कोई साधु संत, गुरु, बाबा, पंडित भी उसे यह ज्ञान नहीं दे सकता, वे उसकी सहायता या मार्गदर्शन अवश्य कर सकते हैं, लेकिन अपने गुरु की भूमिका उसे स्वयं ही निभानी होगी। जिस तरह बच्चा पैदा होते ही साँसे लेने लगता है, वह स्वयं की जरुरत स्वयं ही पहचान लेता है, कोई उसे मजबूर नहीं करता, अर्थात मनुष्य का प्रथम गुरु वह स्वयं है, और दूसरी और क्षणिक गुरु उसकी माता है,  जो उसे ज्ञानार्जन करना सिखाती है, ऐसे ही तीसरे नंबर पर उसके टीचर्स हैं, वे भी क्षणिक-गुरु ही कहे जाएंगे। फिर वापस वह अपना गुरु बनकर उस ज्ञान को अर्जित करने या नहीं करने का निर्णय करता है, जो उसमें कूट-कूटकर भरा है, उसी तरह उसका अंतिम गुरु भी वह स्वयं ही है। और कहा गया है कि गुरु सिर्फ एक ही होता है, इस लिहाज से इंसान ताउम्र स्वयं का ही गुरु होकर इस भवसागर (अज्ञान) से पार पा सकता है। इस राह में इंसान और ज्ञान के बीच में कोई रोड़ा नहीं होने से मार्ग-अवरोध नहीं आता, और अगर इंसान द्वारा ज्ञान की गति पकड़ ली जाती है, तो वह चरम ज्ञान पर ही थमती है।

जब इंसान आदिमानव जीवन से सामाजिक जीवन की ओर अग्रसर हुआ, तब अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए उसने धर्म का रास्ता चुना। मतलब धर्म कोई भी हो उसका मुख्य उद्देश्य सिर्फ ज्ञान और केवल ज्ञान ही है। किसी भी धर्म की कोई भी राह ज्ञान से परे नहीं जाती, और मोक्ष, स्वर्ग, जन्नत या हेवन यह सब ज्ञान के ही अलग-अलग नाम हैं। सबसे बड़ा आकर्षक पहलू यही है कि ज्ञान से ज्ञान-पिपासु के मिलन के बीच कोई मध्यस्थ, पंडित या पाखंड नहीं है, जो राह है, बस उसी पर चलते जाना है, भले ही कठिन हो डगर, पर इस पर भटकने का भय नहीं है, बस चलते ही जाना, सिर्फ और सिर्फ चलते ही जाना है।

Sponsored



Follow Us

Yop Polls

तीन तलाक से सबसे ज़्यादा फायदा किसको?

    Young Blogger

    Dont miss

    Loading…

    Subscribe

    यूथ से जुड़ी इंट्रेस्टिंग ख़बरें पाने के लिए सब्सक्राइब करें

    Subscribe

    Categories