Monday, September 4th, 2017 11:16:01
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भारत-चीन सीमा विवाद : ऐसे समझें इसके पीछे का भूगोल और इतिहास




भारत-चीन सीमा विवाद : ऐसे समझें इसके पीछे का भूगोल और इतिहासPoliticsWorld

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भौगोलिक राजनीति के स्तर पर, चीन और भारत दोनों की सभ्यता पुरानी है, जिनका औपनिवेशिक अतीत भी अंकित है। दोनों की आधुनिक होती जा रही और विशाल अर्थव्यवस्थाएं हैं, और दोनों सबसे ज्यादा जनसंख्यां वाले राष्ट्र हैं, जिनमें विश्व की जनसंख्यां का एक तिहाई निवास करता है। किन्तु भारत और चीन शक्तिशाली हिमालय पर विश्व की सबसे छोटी पर्वत श्रृंखला पर स्थित अपनी साझा व लम्बी सीमा को विभक्त कर पाने में असमर्थ रहे हैं।

विश्व में सबसे ज्यादा पड़ोसी हैं चीन के, इस लिहाज से सीमा रेखाएं भी ज्यादा

चीन अपनी सीमा को विश्व में किसी भी राष्ट्र की तुलना में सर्वाधिक देशों से साझा करता है। 1949 से उसके अपने 20 पड़ोसियों में से प्रत्येक के साथ सीमा विवाद रहा है। जिनमें से सुलझा लिए गए विवाद हैं : म्यांमार (1960), नेपाल (1961), उत्तर कोरिया (1962), मंगोलिया (1962), पाकिस्तान (1963) एवं लाओस (1991)। उसके पूर्व शत्रु जैसे वियतनाम (1999) तथा रूस (1991-94) भी इस से गुजर चुके हैं। किन्तु भारत के साथ, किसी निर्णायक समझौते का संकेत नहीं है।

भारत-चीन विवाद इतना जटिल क्यों?

(a) एक दुःसाध्य भूभाग होने, (b) नवजात सर्वेक्षण तकनीक (c) एक कार्यकारी तिब्बती राज्य की अनुपस्थिति, (d) ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा धूर्तता पूर्वक किए गए नक्शा-निर्माण तथा (e) अभिमानी और शक्तिशाली आधुनिक चीनी राज्य के कारण हिमालयी सीमा विवाद है। विवाद की हड्डी तब बढ़ी जब ब्रिटिशों ने इंग्लैंड-तिब्बत शिमला सम्मेलन 1914 में मैकमोहन रेखा खींची थी, जिसके द्वारा ब्रिटिश-भारत और तिब्बत के बीच सीमा की स्थापना हुई थी। चीन ने इसे बिना चीनी नियंत्रण वाले तिब्बत के रूप में स्वीकार करने से इंकार कर दिया। ध्यान रहे कि उस समय इस परिदृश्य में साम्यवादी कहीं नहीं थे।

 ब्रिटिश चालें और खेल

दक्षिण एशिया में, भारत जो संसाधनों का सबसे समृद्ध स्रोत था, उसके आस-पास ब्रिटेन एक सुरक्षित मध्यवर्ती क्षेत्र चाहता था। 1913-14 में चीन के प्रतिनिधिगण, तिब्बत और ब्रिटेन ने भारत में एक समझौते “शिमला सम्मेलन” पर वार्ता की, जहाँ सर हैनरी मैकमोहन (ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव) ने ब्रिटिश भारत और तिब्बत के मध्य सीमा के रूप में 890 किमी लम्बी मैकमोहन रेखा खींची। मैकमोहन रेखा मुख्य रूप से सर्वोच्च जलविभाजन सिद्धांत पर खींची गई थी, एवं ब्रिटिश नियंत्रण को काफी हद तक उत्तर की ओर कर दिया। तिब्बती और ब्रिटिश प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में इस रेखा पर सहमति जताई, जिसके द्वारा तवांग और अन्य तिब्बती क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अधीन आ गए। जिसे चीन ने अस्वीकृत कर दिया।

साम्यवादियों का आगमन

शक्ति संभालने पर, द पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (PRC) ने सभी पिछले अनुबंधों को “अपमान की शताब्दी” के दौरान थोपे गए गैर-बराबरी वाले समझौते कहकर अपनाने से इंकार कर दिया तथा सभी सीमाओं पर पुनः वार्ता करने की मांग की गई। चीन द्वारा नहीं सुलझाए गए दक्षिण चीन समुद्र विवादों के अलावा चीन-भारत सीमा का प्रमुख क्षेत्रीय विवाद शेष रह गया। चीन अरुणाचल प्रदेश पर अधिकार जताने लगा और तिब्बत में अधोसंरचना का विकास करने लगा।

भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद का परिदृश्य

1947 में स्वतंत्रता के बाद, भारत ने मैकमोहन रेखा को तिब्बत पर अपनी आधिकारिक सीमा बना दिया। हालांकि, 1950 के तिब्बत पर चीनी आक्रमण के बाद, भारत और चीन की नियंत्रण को लेकर एक चिंताजनक स्थिति हो गई। चीन मैकमोहन रेखा को एक अवैध, औपनिवेशिक सीमा रेखा के तौर पर, जबकि भारत इसे अंतर्राष्ट्रीय सीमा के तौर पर देखने लगा।

नेहरू व माओ, तथा वर्तमान 

1950 के दशक के आरंभ में भारत और चीन के बीच के रिश्ते में प्रधानमंत्री नेहरू और अध्यक्ष माओ के नेतृत्व में खटास आ गई। भारत और चीन के तिब्बत क्षेत्र के मध्य व्यापार एवं आवागमन पर “भारत-चीन समझौता-1954” बना, नेहरू ने अनुभव किया कि सीमा अधिक खींचने वाला मुद्दा नहीं है। लेकिन चीन की स्थिति यही बनी हुई है कि भारत तिब्बत पर चीन की संप्रभुता को पहचानता है, तथा औपनिवेशिक मैकमोहन रेखा कुलमिलाकर अलग मुद्दा है। इस कारण से, 2017 में चीन को लगा कि मैकमोहन रेखा के कारण भारत ने लगभग 90,000 वर्गकिमी भूभाग (अरुणाचल प्रदेश) पर कब्ज़ा कर लिया है। भारत ने चीन को जम्मू और कश्मीर में अक्साई चीन में कब्ज़ा 38,000 वर्गकिमी  तथा आगे 1963 में कश्मीर में 5180 वर्ग किमी भूमि पाकिस्तान द्वारा इसे सौंप दी गई (कथित चीन-पकिस्तान “सीमा-समझौता” 1963 के अंश के रूप में) जमीन की याद दिलाई।

इस परिदृश्य में भूटान 

शक्ति के अर्थ में, छोटे से हिमालयी राज्य भूटान को चीन से कोई फर्क नहीं पड़ता, किन्तु अपने भौगोलिक परिदृश्य में 3 प्रमुख विशेषताऐं होने से भूटान भारत और चीन दोनों के लिए सामरिक महत्त्व रखता है। ये हैं : (1) भूटान भारत या चीन से गुजरे बिना ना तो समुद्र तक और ना ही किसी तीसरे देश तक पहुँच सकता है, (2) भूटान बहुतायत में हिमालयन मार्गों को नियंत्रित करता है, जो जमीनी मार्ग के रूप में इन दो महाशक्तियों को सेवा देते हैं। (3) भूटान सामरिक रूप से सिलीगुड़ी गलियारा (अथवा चीनी गर्दन) पर उभयरोधी है- सिलीगुड़ी गलियारा भूमि का एक संकीर्ण मार्ग होकर भारत के पूर्वोत्तर राज्यों को पुरे देश से जोड़ता है। इसलिए, दो क्षेत्रीय दिग्गजों की प्रतिद्वंद्विता के बीच भूटान स्वयं को पाता है।

भूटान और भारत 

चीन की बढ़ी निवेश परियोजनाओं के जवाब में भारत भूटान में अपने आर्थिक सहायता कार्यक्रमों को बढ़ावा दे रहा है, जैसे कि देश में तिब्बत रेल नेटवर्क का योजनाबद्ध विस्तार। बाकी समय पर, भूटान को चीनी सीमा घुसपैठ वाली रणनीति के दबाव में उसे वार्ता-मेज पर लाने हेतु संघर्ष करना पड़ा है। यह  आम चीनी रणनीति है – “राजनीतिक लालच के अनुसरण में सैन्य धमकी”।

 

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