इरोम शर्मिलाः एक हारी हुई विजेता
वर्षा पंवार। सोलह बरस के संघर्ष का शायद इससे त्रासद अंत नहीं होगा। कोई भी देश, समुदाय या समाज इतना कृतघ्न कैसे हो सकता है कि बिना खाए-पीए, दम साधकर अपने लिए की गई साधना को भूल जाए… एक युवा किससे प्रेरणा ले, ये दोराहा है और इसका एक रास्ता अभी, कुछ दिन पहले हुए चुनावों से बना है। सपने में भी अपने सौंदर्य से रिझाने वाला मणिपुर ऐसा बेरंग क्यों हो गया, ये तो संगदिली है, पत्थरों के सानिध्य ने अचानक उसे पत्थर दिल क्यों बना दिया? इरोम शर्मिला हार गईं, ये तो आम खबर थी पर सिर्फ 92 वोट मिले… ये बात उद्वेलित कर रही है।
”आयरन लेडी” नाम से विख्यात इरोम ने 2000 में अनशन शुरू किया था। नवंबर, 2000 को इंफाल के निकट मलोमा बस स्टैंड में बस का इंतजार कर रहे दस लोगों को खड़े-खडे़ गोलियों से भून दिया गया था। तब इस नरसंहार के लिए असम राइफल्स के जवानों को दोषी ठहराया गया था। मृतकों में 62 साल की वृद्ध महिला और राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार विजेता 18 वर्षीय सिनम चंद्रामणि भी शामिल थीं। इस घटना ने इरोम को इतना उद्वेलित किया कि उन्होंने अफ्सपा हटाने के लिए तुरंत अनशन शुरू कर दिया। सरकार कई साल से उन्हें नाक में ट्यूब डालकर जबरन खिलाती रही, ताकि वह जिंदा रह सके। इसके बावजूद लगभग 3500 दिनों तक इरोम भूखी-प्यासी रही। दुनिया की सबसे लंबी भूख हडताल का रिकार्ड भी उनके नाम है। 2014 में एमएसएन ने इरोम को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर ”विमेन आइकॉन आफ इंडिया” चुना था। एमनेस्टी इंटनेशनल शर्मिला को विवेकी कैदी ( प्रिजन ऑफ कांसियस) घोषित कर चुकी है। मणिपुर की राजधानी इंफाल का जवाहर लाल नेहरू अस्पताल का एक वार्ड उनकी जेल था, जहां कई साल सरकार ने उन्हें रखा।दरअसल, बार-बार आत्महत्या की कोशिश करने के लिए उन्हें गिरफ्तार और रिहा किया जाता रहा।
पिछले साल से उठने लगे थे सवाल
पिछले साल अनशन तोड़ने के फैसले के बाद मणिपुरियों में उनको लेकर नाराजगी पैदा हुई। उन्हें बाहरी मान लिया। कई लोग उनके मंगेतर डेसमंड का सवाल उठाने लगे, जो आयरलैंड में रहते हैं। चूंकि वो मणिपुरी नहीं हैं, अतः इरोम को भी बाहरी बताया जाने लगा। डेसमंड के भारत सरकार का जासूस होने और इरोम शर्मिला को अनशन तोड़ने को प्रेरित करने की बात भी मणिपुर की गलियों-सड़कों का चक्कर लगाती रही। इरोम ने मणिपुर के सबसे शक्तिशाली राजनेता इबोबी सिंह को चुनौती दी।
अन्य राज्य भी रहे पीड़ित
शर्मिला ने मणिपुर में अफ्सपा के खिलाफ जो लडाई लड़ी है, वही मांग कश्मीर और पूर्वोतर के अन्य राज्य भी कर रहे हैं। हिंसा और अलगाववाद से पीड़ित मणिपुर समेत पूर्वोतर के सात राज्यों में अमन-चैन बनाए रखने के लिए केन्द्र ने लगभग छह दशक से सशस्त्र सेना स्पेशल पावर्स एक्ट (अफ्सपा) लगा रखा है। 1958 में पारित इस एक्ट के तहत सेना को इन राज्यों में किसी को भी गिरफ्तार करने, तलाशी लेने और कहीं भी रेड करने के विशेष अधिकार दिए गए हैं। आतंकी घटनाएं बढ़ने पर 1983 में अफ्सपा को पंजाब और चंडीगढ में लागू किया गया था मगर अमन-चैन लौटते ही 1997 मे इसे राज्य से उठा लिया गया था। 1990 से जम्मू-कश्मीर में भी अफ्सपा लागू है और अब इस राज्य के अधिकतर सियासी नेता और अवाम इसे हटाने की मांग कर रहे हैं। पूर्वोतर और जम्मू-कश्मीर में अफ्सपा लागू रहने और सेना की तैनाती के बावजूद निर्दोष लोगों के मारे जाने की वारदातें कम नहीं हुई है। अनुमान है पूर्वोतर राज्यों में अब तक आतंकी हिंसा में 50,000 से ज्यादा निर्दोष मारे जा चुके हैं। मणिपुर में ही पांच हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। इस स्थिति के मद्देनजर पूर्वोतर में अफ्सपा ज्यादा प्रभावी नजर नहीं आ रहा है। इसके विपरीत, अफ्सपा से जनमानस राष्ट्रीय मुख्यधारा से दूर होता जा रहा है। शर्मिला का संघर्ष जाया नहीं जाएगा। देर-सबेर पंजाब की तरह मणिपुर समेत पूर्वोतर में भी अफ्सपा के लिफ्ट होने की उम्मीद की जा सकती है।
खिलाफत की राजनीति ने रोके कदम
इरोम के नाम की जाप स्थानीय मीडिया में नहीं, बल्कि राज्य से बाहर के मीडिया में होती रही। ये बात भी स्थानीय लोगों में मजाक और व्यंग्य का निशाना रही। इरोम मुख्यमंत्री बनना चाहती थीं। लेकिन मुख्यमंत्री की दावेदारी करने वाले राजनीतिक दल पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस एलांयस ने चुनावी मैदान में महज तीन ही उम्मीदवार उतारे थे! वोटरों ने इसलिए भी इरोम शर्मिला को गंभीरता से नहीं लिया। माना कि वे गंभीर दावेदार नहीं हैं।
सामाजिक कार्य बनाम राजनीति
चुनाव के दौरान उनकी बातों में डेसमंड और चुनाव के बाद शादी की बात बार-बार होती रहीं। उधर डेसमंड इरोम के जीवन के बड़े संघर्ष के दौरान नदारद दिखे। नतीजा सामने है। 90 वोट मिले इरोम शर्मिला को। उनके बाकी दो उम्मीदवारों की भी जमानत जब्त हो गई। इरोम के चुनाव क्षेत्र में नोटा को 143 लोगों ने अपना समर्थन दिया। इससे इरोम शर्मिला की विफलता स्पष्ट है। इसके पीछे सामाजिक कार्य बनाम राजनीति का फर्क है।
पत्रकारों के सामने मानी थी हार
इंफाल में इरोम की पेशी थी। इस दौरान उन्होंने पत्रकारों से कहा, अब मैं थक चुकी हूं,। सोलह साल से “अफ्सपा- सशस्त्र सेना स्पेशल पावर्स एक्ट- के खिलाफ अकेले लड़ रही हूं, किसी सत्ता , राजनीतिक शक्ति और समर्थन के बगैर। अब शादी कर घर बसाना चाहती हैं और चुनाव भी लड़ना चाहती हूं। 16 साल तक अनशन करने के बावजूद इरोम द्वारा शुरु किया गया संघर्ष अभी अधूरा है और देश की अवाम के लिए कई सवाल छोड़ गया है।
जाहिर है कि इरोम शर्मिला को अहसास हो चुका होगा कि उनके नए संघर्ष में ‘विजय’ महज एक शब्द भर है। जीत हासिल करने के लिए रणनीति भी चाहिए, जो शायद 44-वर्षीय मानवाधिकार कार्यकर्ता के पास नहीं थी। उनके चुनावी काफिले में समर्थकों की तादाद सुरक्षाकर्मियों के मुकाबले नगण्य होती थी। भाषण सुनने या मिलने वालों की भीड़ का दूर-दूर तक नामों-निशान तक नहीं होता था।
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