41वी सालगिरह, सालों बाद आज भी भड़क रहे हैं- शोले
शोले फिल्म नहीं इतिहास है। वो इतिहास जिसको पढ़ते, लिखते, देखते वक्त हर बार ही नया पाएेंगे। इसने किरदारों को अमर किया है। सबको बराबर, न किसी को ज्यादा, न किसी को कम। सलीम-जावेद की जोड़ी इस फिल्म से सिखा गई कि रोज़मर्रा के लोग कैसे किरदारों में ढाले जाते हैं। कैसे हर छोटे रोल को डायलॉग के माध्यम से सालों तक न भूलने वाला बनाया जा सकता है। कैसे टूटे कांच के ऊपर नाचने का न पचने वाला सीन भी दर्शकों के अंदर ऑक्सीजन के माफ़िक दौड़ाया जा सकता है। 15 अगस्त 1975 में रिलीज़ हुई रमेश सिप्पी की शोले इस स्वतंत्रता दिवस 41 साल पूरे करने जा रही है।
शोले की कहानी तो है बदले की। बदला जो एक पुलिस अफसर का एक डाकू से है। पर ये बदला स्क्रीन में इतना बन पड़ेगा ये शायद उस वक्त किसी ने सोचा भी ना होगा। सूरमा भोपाली और जेलर हमें हंसाते रहते हैं। राधा रूलाती है। बसंती का तो क्या कहिए उसकी वजह से तो हम हेमा मालिनी की अजीब लगने वाली डायलॉग डिलेवरी को भी भूल जाते हैं।
यह भारतीय सिनेमा में पहली बार था जब इस तरह से एक्शन, इमोशन, ड्रामा और ट्रैजडी एक साथ एक ही फिल्म में पिरोकर हमारे सामने आए थे। सारे रिकॉर्ड्स तोड़ने के लिए, इतिहास रचने के लिए इस फिल्म ने जन्म लिया। डायरेक्टर-प्रोड्यूसर भाई रमेश सिप्पी और जीपी सिप्पी कुछ बड़ा करना चाहते थे। कुछ ऐसा सिनेमा क्रिएट करना चाहते थे जो बिल्कुल नया हो, एकदम अलग। बॉलीवुड में अपनी जमीन तलाशते दो नौजवान लेखक सलीम खान और जावेद अख्तर, सिप्पी फिल्म्स के लिए महज़ 700रू के मेहनताने पर काम कर रहे थे। उनके दिमाग में आया एक चार लाइन का आइडिया। रमेश सिप्पी ने कहा ‘‘जावेद इसे डेवलप करो, कोई नया एंगल निकालो’’। और सिप्पी फिल्म्स के छोटे से दफ्तर में, सिगरेट और चाय की चुस्कियों के बीच सलीम-जावेद ने शोले की कहानी लिखनी शुरू की। पन्ने-दर-पन्ने शोले का अस्तित्व रूप लेने लगा।
रियल लाइफ किरदार भी फिल्म का हिस्सा बनते गए। गब्बर मिला चंबल कि घाटी में, एक मशहूर डकैत के रूप में। अंग्रजों के जमाने के जेलर का किरदार चार्ली चैपलीन की फिल्म द ग्रेट डिक्टेटर से प्रेरित हुआ। वीरू के लिए उस वक्त के ही-मैन धर्मेन्द्र और बसंती के लिए ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी को कास्ट किया गया। धर्मेन्द्र ठाकुर का रोल करना चाहते थे जो संजीव कुमार को ऑफर किया गया था। शोले के साथ कई असल जिंदगी के किस्से भी जुड़े हुए हैं। हेमा से बॉलीवुड के कई हीरो शादी करना चाहते थे। धर्मेन्द्र भी इसी रेस का हिस्सा थे। फिल्म की कास्टिंग से पहले ही संजीव हेमा को शादी के लिए प्रपोज़ कर चुके थे। सबसे ज्यादा मुश्किल हुई जय को कास्ट करने में। दुबले-पतले, 6 फुट लंबे अमिताभ इस किरदार के लिए सटीक बैठते थे। लेकिन इससे पहले अमिताभ के नाम एक के बाद एक 10 फ्लॉप फिल्में थीं। इसलिए कई डिस्ट्रूब्यटर्स चाहते थे कि शत्रुघ्न सिन्हा को बतौर जय कास्ट किया जाए। मगर सलीम-जावेद की ज़िद के कारण अमिताभ भी शोले का हिस्सा बन गए।
जया भादुड़ी अमिताभ के अपोसिट कास्ट हुईं। शूटिंग से पांच महीने पहले ही अमिताभ-जया की शादी भी हो चुकि थी। बच्चन साहब और संजीव कुमार दोनों गब्बर का किरदार करना चाहते थे। क्योंकि जावेद अख्तर की कलम से जन्मा गब्बर आगे बढ़ती कहानी के साथ और पॉवरफुल होता जा रहा था। ऑरिजिनल कास्ट की पहली तस्वीर 1973 में स्क्रीन मैगजीन के कवर के लिए खींची गई। तस्वीर में डैनी गब्बर के रोल में दिखे। लेकिन फिरोज खान की धर्मात्मा के साथ डैनी की डेट्स उलझ गईं। शोले, डैनी ने छोड़ दी। और फिर सलीम-जावेद ने नाम सुझाया थिएटर आर्टिस्ट अमज़द खान का।
सिप्पी चाहते थे एक नई लोकेशन। शोले के आर्ट डायरेक्टर राम येडेकर ने बैंगलोर से 60 कि.मी. पर ‘रामनगरम’ का इलाका शोले की शूटिंग के लिए बेस्ट बताया। रामनगरम ही शोले की फाइनल लोकेशन बना। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी ये थी कि रामनगरम जाने के लिए सड़क नहीं थी। सिप्पी ब्रदर्स ने बैंगलोर हाईवे से रामनगरम तक पहले सड़क बनवाई और रामनगरम बना ठाकुर का रामनगर। जहां ठाकुर की हवेली थी, मंदिर था, मस्जिद थी, और उसी के ईर्द गिर्द पूरा गांव। अक्टूबर 1973 में तो ऐसा लगता था कि मानो पूरी फिल्म इंडस्ट्री बैंगलोर शिफ्ट हो गई थी। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि शोले का क्रू कितना विशाल था। लेकिन इन सब के बावजूद रमेश और जीपी सिप्पी ने हर बारीकी पर नजर बनाए रखी और शोले का शूट पूरा हुआ।
शोले को कम्प्लीट होने में 2 साल (1973-1975) का वक्त लगा और 41 साल पहले 15 अगस्त के ही दिन शोले ने सिनेमाघरों तक का सफर पूरा किया। आगे की कहानी जग जाहिर है। नए सिरे से इतिहास लिखा गया। आज तक कोई फिल्म उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाई जहां शोले विराजमान है। शेखर कपूर ने कहा था ‘‘हम भारतीय सिनेमा को दो हिस्सो में बांट सकते हैं, एक शोले के पहले का सिनेमा और एक बाद का।’’ गौरतलब है कि शोले को सिर्फ एक फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला, वह भी एडिटिंग के लिए मगर 50वें फिल्मफेयर अवॉर्ड ने शोले को पिछले 50 सालों की सबसे बेहतरीन फिल्म का खिताब दिया था। इस कल्ट क्लासिक को पूरी दुनिया के अनेक फिल्म फेस्टिवलों ने सम्मानित किया और अपनी क्लासिक फिल्मों की लिस्ट में भी शामिल किया है। शोले एक फिल्म नहीं, एक जीवंत कहानी की तरह हमारे बीच मौजूद है। इसके किरदार जैसे हमारी रोज़मर्रा की जिं़दगी में बसे हैं। इसके डायलॉग्स हमारी ज़ुबान में गहरे उतर चुके हैं। जब तक भारतीय सिनेमा का अस्तित्व रहेगा तब तक शोले को साल-दर-साल इसी तरह याद किया जाएगा।
some content taken from – khabar.ibnlive.com