फांसी : जघन्य अपराध की आसान सजा
हाल ही में हुई याकूब मेनन की फांसी पर पूरे देश भर में हलचल सी पैदा हो गई है। उसको रोकने के लिए आधी रात में की गई त्वरित सुनवाई तो कई दिग्गजों द्वारा मानवीय आधार बता कर फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलने की वकालात की गई। बर्बतापूर्वक की गई हत्या, सीरियल ब्लास्ट के द्वारा सैकड़ों की तादाद में होने वाली हत्याओं और उसके गुनहगारों को फांसी की सजा एक आसान सजा है। उससे कहीं अधिक याताना वाली सजा वहां मुकर्रर होनी चाहिए। किसी धर्म और राजनीति से ऊपर उठ कर इस पर एक स्वस्थ्य बहस होनी चाहिए।
सवाल यह उठता है कि क्या अमानवीय, घिनौने कार्यों के लिए मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए? किसी भी गुनाह के लिए सजा का क्या मतलब है? सजा का सीधा-सीधा मतलब एक तो गुनहगार को उसके गुनाह का दण्ड मिले, दूसरा दण्ड इस प्रकार होना चाहिए कि फिर कोई गुनाह कर न सके। आखिर जिनकी हत्याएं हुई हैं क्या वह मानवीय था? उनसे उपजे घाव क्या सदियों तक भर पाएंगे? निश्चित तौर पर नहीं! तो फिर उनका गुनाह करने वालों के साथ मानवीयता कैसे बरती जाए?
फांसी का विरोध होना चाहिए, मानवीय आधार पर नहीं बल्कि इसलिए कि फांसी एक बहुत ही आसान सजा है। पल में व्यक्ति बगैर किसी खौफ-यंत्रणा के ही जीवन से चला जाता है, जबकि उसके द्वारा जो गुनाह होता है उसका दर्द सदियों तक होता है। उसका हर एक पल दुख की पीड़ा को झेलता है। ऐसे में उसकी सजा के रूप में जो सर्वोच्च दण्ड हमारे यहां मुकर्रर है वो या तो फांसी या आजीवन कारावास दोनों ही सजा बहुत आसान हैं। जिसमें उसे उसके द्वारा किए गए गुनाह की गंभीरता का रत्तीभर भी एहसास नहीं होता है। यही वजह है कि इस तरह के गुनाह हमारे यहां लगातार बगैर किसी खौफ के होते रहे हैं और शायद उचित कार्यवाही न हो तो आगे भी होते रहेंगे। सजा तो ऐसी होनी चाहिए कि फिर कोई गुनाह न हो और न ही कोई उसके लिए सोच भी सके। जो गुनाह हो चुका है उसका दण्ड तो मुकर्रर होना ही चाहिए, किंतु फिर न हो सके उसका भी हमें ध्यान रखना चाहिए। अन्यथा जिम्मेदार कौन होगा, इस पर भी विचार कर लेना चाहिए।
सुमेश खंडेलवाल
प्रधान संपादक