‘B’Day: बचपन में किताबों के लिए बेचते थे सब्जियां आज उनके ही नाम पर है यूनिवर्सिटी
विजयादशमी के मौके पर पीएम मोदी ने देशभर को बधाई दी साथ ही नानाजी देशमुख को भी याद किया। पीएम मोदी ने ट्वीट करते हुए कहा कि ‘‘मैं लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती पर उन्हें नमन करता हूं। भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को संरक्षित रखने में उनका अमूल्य योगदान है। नानाजी देशमुख ने निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा की है। उनकी जंयती पर नमन है।’’
Nanaji Deshmukh was a stalwart blessed with a penchant for selfless service to society. Tributes to him on his birth anniversary.
— Narendra Modi (@narendramodi) October 11, 2016
नानाजी देशमुख का देश की राजनीति में काफी योगदान रहा। नानाजी ही वो महापुरूष है जिन्होंने यूपी में सालों से चले आ रहे कांग्रेस के राज को हटाकर बीजेपी के शासन की स्थापना की थी। नानाजी आरएसएस में भी काफी सक्रिय रहे। अपने ज़िन्दगी में सबसे ज्यादा उन्होंने आरएसएस को सहयोग किया था।
नानाजी का जन्म 11 अक्टूबर 1916 हुआ था। इनके पिता चंडिकादास अमृतराव देशमुख तथा माता राजाबाई थी। नानाजी का बचपन बड़े ही संघर्षो में गुजरा था। बचपन में पढ़ाई और किताबों के लिए वे सब्जी बेंचकर पैसे जुटाते थे। शायद यहीं वजह बनी कि आज वे देश के कई शिक्षा संस्थानों को उनके नाम किया गया है। साल 1934 में नानाजी ने आरएसएस के प्रचारक बनने का फैंसला लिया और अपना घर छोड़ दिया।
नानाजी ने आरएसएस के प्रचारक के रूप में यूपी में बहुत योगदान दिया। उन्हें प्रचारक के रूप में पहले आगरा भेजा गया इसके बाद गोरखपुर भेजा गया। उस समय आरएसएस की आर्थिक स्थिति काफी ख़राब थी। संघ के पास दैनिक खर्च के लिए भी पैसे नहीं होते थे। नानाजी को धर्मशाला में ठहरना पड़ता था लेकिन उस समय धर्मशालाओं का नियम था कि कोई भी व्यक्ति तीन दिन से ज्यादा एक ही धर्मशाल में नहीं ठहर सकता। नानाजी को हर तीसरे दिन धर्मशाला बदलनी पड़ती थी। अंत में बाबा राघवदास ने उन्हें इस शर्त पर ठहरने दिया कि अगर वे उनके लिए खाना बनाएंगे तो वे वहां ठहर सकते है।
नानाजी गोरखपुर में तीन साल तक ठहरे और संघ का प्रचार किया। उनकी तीन साल की मेहनत रंग लाई। गोरखपुर के आसपास उन्होंने संघ की ढाई सौ से अधिक शाखाए खुलवाई। लेकिन नानाजी ने इस समय शिक्षा पर बहुत जोर दिया। उन्होंने पहले सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना गोरखपुर में की।
1947 में, आर.एस.एस. ने राष्ट्रधर्म और पांचजन्य नामक दो साप्ताहिक और स्वदेश (हिन्दी समाचारपत्र) निकालने का फैसला किया। अटल बिहारी वाजपेयी को सम्पादन, दीन दयाल उपाध्याय को मार्गदर्शन और नानाजी को प्रबन्ध निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी गयी। पैसे के अभाव में पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन संगठन के लिये बेहद मुश्किल कार्य था, लेकिन इससे उनके उत्साह में कमी नहीं आयी और सुदृढ राष्ट्रवादी सामाग्री के कारण इन प्रकाशनों को लोकप्रियता और पहचान मिली। 1948 में गान्धीजी की हत्या के बाद आर.एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, जिससे इन प्रकाशन कार्यों पर व्यापक असर पड़ा। फिर भी भूमिगत होकर इनका प्रकाशन कार्य जारी रहा।
जब आरएसएस से प्रतिबंध हटा तो राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना का फैसला हुआ। नानाजी को यूपी में भारतीय जनसंघ के महासचिव का प्रभार लेने को कहा। नानाजी के जमीनी कार्य ने उत्तरप्रदेश में पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। 1957 तक जनसंघ ने यूपी के सभी जिलों में अपनी इकाईयां खड़ी कर ली। इस दौरान नानाजी ने पूरे यूपी का दौरा किया जिसके परिणामस्वरूप जल्द ही भारतीय जनसंघ यूपी की प्रमुख राजनैतिक शक्ति बन गई।
यूपी में सबसे बड़ी राजनैतिक हस्ती चंद्रभानु गुप्त को नानाजी की वजह से तीन बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था। एक बार, राज्यसभा चुनाव में कांग्रेसी नेता और चंद्रभानु के पसंदीदा उम्मीदवार को हराने के लिए उन्होंने रणनीति बनायी। 1957 में जब गुप्त स्वयं लखनऊ से चुनाव लड़ रहे थे, तो नानाजी ने समाजवादियों के साथ गठबन्धन करके बाबू त्रिलोकी सिंह को बड़ी जीत दिलायी। 1957 में चन्द्रभानु गुप्त को दूसरी बार हार को मुँह देखना पड़ा।
उत्तरप्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी के संगठनात्मक कार्यों के कारण भारतीय जनसंघ महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बन गया। न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं से बल्कि विपक्षी दलों के साथ भी नानाजी के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। चन्द्रभानु गुप्त भी, जिन्हें नानाजी के कारण कई बार चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था, नानाजी का दिल से सम्मान करते थे और उन्हें प्यार से नाना फड़नवीस कहा करते थे। डॉ॰ राम मनोहर लोहिया से उनके अच्छे सम्बन्धों ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। एक बार नानाजी ने डॉ॰ लोहिया को भारतीय जनसंघ कार्यकर्ता सम्मेलन में बुलाया, जहाँ लोहिया जी की मुलाकात दीन दयाल उपाध्याय से हुई। दोनों के जुड़ाव से भारतीय जनसंघ समाजवादियों के करीब आया। दोनों ने मिलकर कांग्रेस के कुशासन का पर्दाफाश किया।
1967 में भारतीय जनसंघ संयुक्त विधायक दल का हिस्सा बन गया और चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सरकार में शामिल भी हुआ। नानाजी के चौधरी चरण सिंह और डॉ राम मनोहर लोहिया दोनों से ही अच्छे सम्बन्ध थे, इसलिए गठबन्धन निभाने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी। उत्तरप्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन में विभिन्न राजनीतिक दलों को एकजुट करने में नानाजी जी का योगदान अद्भुत रहा।
नानाजी, विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए। दो महीनों तक वे विनोबाजी के साथ रहे। वे उनके आन्दोलन से अत्यधिक प्रभावित हुए। जेपी आन्दोलन में जब जयप्रकाश नारायण पर पुलिस ने लाठियाँ बरसायीं उस समय नानाजी ने जयप्रकाश को सुरक्षित निकाल लिया। इस दुस्साहसी कार्य में नानाजी को चोटें आई और इनका एक हाथ टूट गया। जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई ने नानाजी के साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति को पूरा समर्थन दिया। जनता पार्टी से संस्थापकों में नानाजी प्रमुख थे। कांग्रेस को सत्ताच्युत कर जनता पार्टी सत्ता में आयी। आपातकाल हटने के बाद चुनाव हुए, जिसमें बलरामपुर लोकसभा सीट से नानाजी सांसद चुने गये। उन्हें पुरस्कार के तौर पर मोरारजी मंत्रिमंडल में बतौर उद्योग मन्त्री शामिल होने का न्यौता भी दिया गया, लेकिन नानाजी ने साफ़ इनकार कर दिया। उनका सुझाव था कि साठ साल से अधिक आयु वाले सांसद राजनीति से दूर रहकर संगठन और समाज कार्य करें।
1980 में साठ साल की उम्र में उन्होंने राजनीति से सन्यास लेकर अपने जीवन को समाजसेवा और रचनात्मक कार्यो में लगाया। उन्होंने गरीबी निरोधक व न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम चलाया, जिसके अंर्तगत कृषि, कुटीर उधोग, ग्रामीण स्वास्थ और ग्रामीण शिक्षा पर विशेष बल दिया। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और उसमें रहकर समाज-सेवा की। उन्होंने चित्रकूट में चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविधालय की स्थापना की। ये विश्वविधालय भारत का पहला ग्रामीण विश्वविधालया है और वे इसके पहले कुलपित बने।
साल 1999 में नानाजी देशमुख को अपने महान कार्यो व देशसेवा एवं समाजसेवा में योगदान के लिए पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था। तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने नानाजी के कार्यो की एवं उनके संगठन दीनदयाल शोध संस्थान की प्रशंषा की थी। नानाजी की मृत्यु 2010 में 84 साल की उम्र में हुई थी। अपने जीवित रहते हुए उन्होंने देहदान का संकल्प लिया था। जिसे उनकी मौत के बाद पूरा किया गया।