मुक्तिबोध : अपनी बात को बेबाकी से शब्दों मे पिरो देने वाले कवि
साल 1917 में 13 नवंबर के दिन एक थानेदार के घर जन्म हुआ एक लड़के का जिसे बाद में लिखने और बीड़ी पीने का चस्का लग गया। ये तो कोई नहीं जानता कि कब लगा लेकिन कहते है कि दोस्त के साथ जब घूमने निकलते थे तब ही लगा है ये चस्का। दूसरा चस्का था उन्हें लिखने का अपनी बात को बेबाक शब्दों में बोल जाना ये उनकी लेखनी की खासियत थी। जिस लेखक की बात हम यहां कर रहे है वो गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’।
मुक्तिबोध हमेशा हिंदी साहित्य में चर्चा में रहने वाले लेखकों मे एक थे। वे एक बेहतरीन कहानीकार तो थे ही साथ ही साथ वे एक उम्दा समीक्षक भी थे। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है। गजानन माधव का जन्म श्योपुर में हुआ था। इनकी आरंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई थी। इंदौर के होल्कर कॉलेज से उन्होंने बी.ए. किया और 1938 में वे उज्जैन आ गए। 1939 में ही उन्होंने परिवार की असहमति से प्रेमविवाह कर लिया।
मुक्तिबोध को अपने जीवनकाल में कोई ख़ास पहचान न मिल सकी। उनका निधन 11 सितंबर 1964 को हुआ था। उनकी प्रमुख कहानियां अँधेरे में, क्लॉड ईथरली, काठ का सपना, जंक्शन, पक्षी और दीमक, प्रश्न, ब्रह्मराक्षस का शिष्य है। उनके निधन के बाद भी उनकी कहानियां और कविताएं हमारे बीच घूमती रहती है। आइए आपको पढ़ाते है उनकी कुछ ख़ास कविताएं…
मृत्यु और कवि
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
“ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर” ।
ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर
जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !
इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल
भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना
इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल
अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम
जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।
क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर
दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर?
इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर,
सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर
तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर
ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर ।