मुस्लिम होकर लिखी थी महाभारत, कहलाए दूसरे वेदव्यास
9 अगस्त 1927 को गाजीपुर में एक कचहरी के वकील के घर जन्म हुआ था एक लड़के का। इसे बचपन में ही पोलियो ने अपनी चपेट में ले लिया था। इस बच्चे का नाम था राही मासूम ऱजा। राही गंगा-जमुनी तहज़ीब के ऐसे लेखक थे जिन्होंने कई प्रसिद्ध उपन्यास लिखे। 1988 में दूरदर्शन पर प्रसारित महाभारत, जो आज भी लोगों के दिलों में ज़िन्दा है शायद कम ही लोगों को पता होगा कि उसकी पटकथा और संवाद लिखने वाले थे राही मासूम रज़ा। जिन्होंने एक मुस्लिम होकर भी महाभारत की पटकथा लिखी। कई लेखों में लोगों ने उन्हें दूसरा वेदव्यास भी कहा। उनके जन्मदिन के मौके पर हम आपको बताने जा रहे है उनकी जिंदगी और उनकी रचनाओं से जुड़ी कुछ खास बातें…
पोलियो ने छुड़ाई पढ़ाई
राही ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई गाजीपुर से ही की थी। बचपन में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ समय के लिए छूट गई थी। इसके बाद इन्होंने अपनी पढ़ाई फिर शुरू की। उच्च शिक्षा के लिए वे अलीगढ़ चले गए थे। यहां पर एम. ए. करने के बाद उन्होंने ‘तिलिस्म-ए-होशरूबा’ पर पीएचडी की। पीएचडी करने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ही उर्दू विभाग में प्रोफेसर बन गए।
राजनीति में भी हुए शामिल
राही मासूम रज़ा एक अच्छे लेखक तो हैं ही पर साथ ही राजनीति के मैदान में भी आए थे। अलीगढ़ में रहते हुए उनका दृष्टिकोण साम्यवादी हो गया था। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी भी ज्वाइन की। अपनी ज़िंदगी के इस समय में वे बड़ी ही तेजी और उत्साह के साथ साम्यवादी सिद्धांतों पर चलकर समाज के पिछड़ेपन को दूर करने का प्रयास कर रहे थे।
फिल्मों के लिए किया काम
इस बात को लेकर तो कोई दो राय नहीं है कि वे एक बेहतरीन लेखक थे। उनकी कई रचनाएं आज भी दिलों में ज़िंदा है। राही 1986 में मुंबई आ गए थे। यहां उन्होंने साहित्यिक गतिविधियों के अलावा फिल्मों के लिए भी लेखन किए जो उनकी जीविका का साधन बन गया था। मुंबई में रहकर उन्होंने 300 से ज्यादा फिल्मों की स्क्रिप्ट और 100 से ज्यादा धारावाहिक लिखे। उन्हें सीरियल ‘महाभारत’ के लिए आज भी याद किया जाता है। राही को 1979 में फिल्म ‘मै तुलसी तेरे आंगन की‘ के लिए बेस्ट डॉयलॉग राइटर के फिल्म फेयर अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था।
राही और उनका साहित्य
राही का कृतित्व विविधताओं से भरा रहा है। राही ने 1946 में लिखना शुरू किया तथा उनका प्रथम उपन्यास ‘मुहब्बत के सिवा’ 1950 में उर्दू में प्रकाशित हुआ। वे एक उपन्यास और पटकथा लिखने के साथ साथ एक कवि भी थे। उनकी ‘नया साल मौजे गुल में मौजे सबा’, उर्दू में सर्वप्रथम 1954 में प्रकाशित हुईं। उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह ‘रक्स ए मैं उर्दू’ में प्रकाशित हुआ। परन्तु वे इसके पूर्व ही वे एक महाकाव्य ‘अठारह सौ सत्तावन’ लिख चुके थे जो बाद में ‘छोटे आदमी की बड़ी कहानी’ नाम से प्रकाशित हुआ। उसी के बाद उनका बहुचर्चित उपन्यास “आधा गांव” 1955 में प्रकाशित हुआ जिससे राही का नाम उच्चकोटि के उपन्यासकारों में लिया जाने लगा। यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक नगर गाजीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गांव गंगोली के शिक्षा और समाज की कहानी कहता है। राही नें स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि “वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हकीकत पकड़ में आ गयी तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा”।
भारत-पाक विभाजन का दर्द किया बयां
राही का तीसरा उपन्यास “टोपी शुक्ला” प्रकाशित हुआ। इस राजनैतिक समस्या पर आधारित चरित्र प्रधान उपन्यास में भी उसी गांव के निवासी की जीवन गाथा पाई जाती है। राही इस उपन्यास के द्वारा यह बतलाते हैं कि सन 1947 में भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐसा कुप्रभाव पड़ा कि अब हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलकर रहना अत्यन्त कठिन हो गया। सन 1970 ‘ओस की बूंद’ का आधार भी वही हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की कथा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
सामाजिक विषयों का किया मार्मिक चित्रण
सन 1973 में राही का पांचवा उपन्यास “दिल एक सादा कागज” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और भारत के हिन्दू तथा मुसलमान शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनैतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए। इस उपन्यास में राही ने फिल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधियों, आशा-निराशाओं एवं सफलता-असफलता का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।
राही मासूम रजा की अन्य कृतियाँ है- मैं एक फेरी वाला, शीशे का मकां वाले, गरीब-ए-शहर, क्रांति कथा (काव्य संग्रह), हिन्दी में सिनेमा और संस्कृति, लगता है बेकार गये हम, खुदा हाफिज कहने का मोड़ (निबन्ध संग्रह) साथ ही उनके उर्दू में सात कविता संग्रह भी प्रकाशित हैं। इन सबके अतिरिक्त राही ने दस-बारह कहानियां भी लिखी हैं। जब वो इलाहाबाद में थे तो अन्य नामों से रूमानी दुनिया के लिए पन्द्रह-बीस उपन्यास उर्दू में उन्होंने दूसरों के नाम से लिखे है।
फिल्मों और साहित्य में ताल-मेल वाले राही मासूम ऱजा की कई कृतियां है जो आज भी लोगों को याद हैं। गाजीपुर में जन्म लेने वाले इस लेखक का निधन 15 मार्च 1922 को हुआ था। ऱजा साहब भले ही दुनिया से चले गए हों लेकिन उनकी कलम आज भी ज़िंदा हैं और लोगों के दिलों में अपनी छाप छोड़ रही है।