सिंहस्थ : ऐसे मिलता है अखाड़े में प्रवेश
उज्जैन। जूना के बाद शनिवार को आह्वान अखाड़े के द्वारा भी करीब डेढ़ हजार नागाओं को संन्यास दीक्षा दी गई। इनमें करीब 50 महिला नागा संन्यासिनी भी शामिल थीं। दीक्षा की अंतिम प्रक्रिया शिप्रा किनारे दत्त अखाड़ा घाट पर पूरी करवाई गई। यहां सभी नागाओं ने अपना पिंडदान कर शिप्रा स्नान भी किया।
अखाड़े में प्रवेश
अखाड़े में भर्ती होने के लिए भी नियम बनाए गए है। इन नियमों के अनुसार किसी अखाड़े में भर्ती होने वाले व्यक्ति को उपस्थित मंडली के सम्मुख आना पड़ता है, जो उस आवेदक व्यक्ति की जात-पात आदि के विषय में पूछ-ताछ करती है। इसके बाद उसकी शारीरिक परीक्षा ली जाती है। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के बाद आवेदक को अखाड़े के इष्ट देवता के समक्ष जमात की छः प्रतिज्ञाएँ कराई जाती है। ये छः प्रतिज्ञाएँ निम्न प्रकार है –
‘तेरी मेरी करना नहीं’ अर्थात् संपत्ति को जमाने की संपत्ति उसमें मेरी
या तेरी का भेद नहीं करना।
‘गांजा-तम्बाकू पीना नहीं’ अर्थात् नशाखोरी नहीं करना ।
‘ये अखाड़ा छोड़ दूसरे में जाना नहीं’ अर्थात् जिस अखाड़े में भर्ती हुए उसी में रहना । अखाड़ा नहीं बदलना।
‘लोहा-लकड़ी उठाना नहीं’ अर्थात् आपस में मार-पीट नहीं करना।
‘जिसके पास रहना उसकी सेवा करना’
‘खाने-पीने की मौना, धरे-टंके की सौगंध’ अर्थात् जमात में खाने-पीने की चीजों का उपभोग करने की पूरी छूट है परंतु किसी सम्पत्ति को चुराने, छिपाने या व्यक्तिगत सम्पत्ति बनाने की सौगंध है।
इस प्रकार प्रत्येक सन्यासी को अखाड़े के नियमों का पालन करना पड़ता है।
अखाड़े में नागाओं की स्थिति
अखाड़े में नागाओं की तीन स्थितियां होती है:-
वस्त्रधारी – प्रतिज्ञा लेने के बाद जिस व्यक्ति को अखाड़े में शामिल किया जाता है उसे वस्त्रधारी या गुरूभाई या भंडारी कहा जाता है। वस्त्रधारी का कार्य प्रातःकाल उठकर अपने गुरू को दतौन पानी देना, झाङू देकर स्थान साफ करना तथा वरिष्ठ अधिकारी सिद्ध की आज्ञाओं का पालन करना होता है। इन्हें ‘मत’ देने का अधिकार नहीं होता है।
नागा (दिगम्बर) – यह नागा साधुओं की दूसरी स्थिति है। जब वस्त्रधारी 10-12 वर्षों तक अपने सिंह गुरू की आज्ञा का पालन करता है और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है तब उसे नागा बनाया जाता है। इस कार्य के लिए प्रयाग, उज्जैन तथा हरिद्वार उपयुक्त स्थान माने जाते है परंतु प्रयाग को उत्तम स्थान समझा जाता है।
थानापति – नागा सन्यासियों की तीसरी स्थिति थानापति की है, यह पद नागा पद से उच्च माना जाता है। इसका अर्थ अखाड़े की किसी शाखा का कार्यकर्ता बनना होता है। ऐसी मान्यता है कि जो नागा बन चुका हो उसे थानापति बनने की पात्रता होती है परंतु इसके लिये भूतपूर्व महंत होना आवश्यक है।
थानापति का चुनाव किया जाता है जिसको श्रीपंच हर दावे में से चुनता है। थानापति का कार्य अखाड़े की सम्पत्ति की व्यवस्था और देख-देख करना होता है। श्रीपंच को थानापति की नियुक्त तथा पद्मुक्ति के अधिकार होते है।
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