Friday, August 25th, 2017
Flash

बेटी के जन्म के साथ हुए थे ग्रेजुएट, जानिए क्यों राधाकृष्णन को कहते है ‘सर्वपल्ली’




Education & Career

[avatar user=”ravi” size=”thumbnail” align=”left” /]

sarwapalli radhakrishana

5 सितंबर यानी टीचर्स डे का नाम आते ही हमारे जेहन में हमारे टीचर्स की यादें फिर से ताजा हो जाती हैं। वहीं टीचर्स जिनकी सीख हमें जिंदगी भर याद रहती है, जिनकी बातें हमारी जिंदगी के हर मोड़ पर हमारा साथ देती है और हमारे काम आती हैं। ये टीचर्स वहीं होती है जिनकी शुरूआत हमारी जिंदगी में ब्लैकबोर्ड और चॉक के साथ शुरू होती है। इसी ब्लैकबोर्ड पर हम टीचर्स से ए फॉर एप्पल से लेकर दुनियाभर के सबक सीखते है। टीचर्स डे के मौके पर एक नाम और है जिनके बिना ये टीचर्स डे अधूरा है और वो हैं डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। डॉ. राधाकृष्णन ही वो शख्स है जिनके जन्मदिन को इस दिन मनाया जाता है। इनके जन्मदिन के मौके पर हम आपको बताने जा रहे हैं उनकी जिंदगी के बारें में कुछ ख़ास बातें…

कठिनाइयों में गुजरा बचपन
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को तमिलनाडु को तिरूतनि गांव में हुआ था। उन्होंने जिस परिवार में जन्म लिया वह एक ब्राह्मण परिवार था उनके पिता सर्वपल्ली वीरास्वामी और माता सीताम्मा थी। उनके पिता की छह संताने थी। डा. राधाकृष्ण के पिता राजस्व विभाग में काम करते थे लेकिन इतने बड़े परिवार की जिम्मेदारी के कारण उनके पिता काफी कठिनाइयों से परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वहन कर पाते थे। इसी कारण डॉ. राधाकृष्णन का बचपन काफी कठिनाइयों में गुजरा।

पढ़ाई में रहे अव्वल
डॉ. राधाकृष्णन का बचपन तिरूपति जैसे धार्मिक स्थलों के बची गुजरा। उनके पिता पुराने विचारों के थे और उनमें धार्मिक भावनाएँ भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य पढ़ाई के लिये भेजा। फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की उनकी शिक्षा वेल्लूर में हुई। इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। वह बचपन से ही मेधावी थे। इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्त्वपूर्ण अंश भी याद कर लिये। इसके लिये उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। उन्होंने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। दर्शनशास्त्र में एम०ए० करने के पश्चात् 1916 में वे मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। बाद में उसी कॉलेज में वे प्राध्यापक भी रहे। डॉ॰ राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। सारे विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा की गयी।

इसलिए कहते है ‘सर्वपल्ली’
जिस परिवार में उन्होंने जन्म लिया वह एक ब्राह्मण परिवार था। उनका जन्म स्थान भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है। राधाकृष्णन के पुरखे पहले कभी ’सर्वपल्ली’ नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन उनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्मस्थल के ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिये। इसी कारण उनके परिजन अपने नाम के पूर्व ’सर्वपल्ली’ धारण करने लगे थे।

कम उम्र में हुई थी शादी
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की शादी मात्र सोलह वर्ष की उम्र में ‘सिवाकामू’ से हो गई थी। उस समय उनकी पत्नी की उम्र मात्र दस वर्ष थी। उन्होंने शादी के तीन साल बाद पत्नी के साथ रहना आरंभ किया। उनकी पत्नी सिवाकामू ने परंपरागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं थी लेकिन तेलगू भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी इसके साथ ही वह अंग्रेजी भी जानती थी। 1908 में ही डॉ. राधाकृष्णन एक बेटी के पिता बने। इसी साल उन्होंने आर्ट्स में स्नातक की उपाधि ली थी। शादी के छह सालों बाद ही 1909 में उन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। हायर एजुकेशन के दौरान वे अपनी निजी आमदनी के लिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का भी काम करते थे।

1916 में मद्रास रजिडेसी कालेज में दर्शन शास्त्र के सहायक प्राध्यापक बने। तत्पश्चात वें इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी मे भारतीय दर्शन शास्त्र के शिक्षक बन गए। डॉ राधाकृष्णन शिक्षा को पहला महत्व देते थे। यही कारण है कि वो इतने ज्ञानी विद्वान् रहे। शिक्षा के प्रति रुझान ने उन्हें एक मजबूत व्यक्तित्व प्रदान किया था। हमेशा कुछ नया सीखने पढने के लिए उतारू रहते थे। जिस कालेज से उन्होंने एम.ए. किया था वही का इन्हें उपकुलपति बना दिया गया। परंतु एक वर्ष के भीतर ही इसे छोड़ कर बनारस विश्वविद्यालय मे उपकुलपति बन गए।

राजनीति और राधाकृष्णन
यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतन्त्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इसी समय वे कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किये गये। अखिल भारतीय कांग्रेसजन चाहते थे कि वे गैर राजनीतिक होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाए जाए। उस समय जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन की संभाषण एवं उनकी वकत्तत्व प्रतिभा का उपयोग हो उन्होंने उनके भाषण के लिए 14-15 अगस्त 1947 की रात्रि का वह समय लिया जब नेहरू शपथ लेने वाले थे। उन्होंने निर्देश दिया कि राधाकृष्णन अपना संबोधन ठीक रात 12 बजे समाप्त करे। क्योंकि उसके पश्चात ही नेहरू जी के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।

राजनयिक कार्य की जिम्मेदारी
देश की आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिये विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पण्डित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शनशास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह सन्देह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। वे एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मन्त्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वे उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद उनके शयन का समय हो जाता था। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब भी वे नियमों के दायरों में नहीं बँधे थे। कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाते थे। इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरान्त भी यह विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।

अपनी योग्यताओं से बने उपराष्ट्रपति
1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किये गये। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। सन 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाये गये। बाद में पण्डित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिये काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सन 1954 में उन्हें भारत रत्न देकर सम्मानित किया गया। इसके पश्चात 1962 में उन्हें देश का दूसरा राष्ट्रपति चुना गया। जब वे राष्ट्रपति पद पर आसीन थे उस वक्त भारत का चीन और पाकिस्तान से युध्द भी हुआ। वे 1967में राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त हुए और मद्रास जाकर बस गये।

शिक्षा और राजनीति में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए राधाकृष्णन को सर्वोच्च अलंकरण “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया। 1962 मे उन्हें “ब्रिटिश एकेडमी” का सदस्य बनाया गया। पोप जॉन पाल ने “गोल्डन स्पर” भेट किया। ब्रिटिश सरकार से “आर्डर ऑफ़ मेरिट” का सम्मान प्राप्त हुआ। डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन शास्त्र एवं धर्म के उपर अनेक किताबे लिखी। “गौतम बुद्धाः जीवन और दर्शन” “धर्म और समाज” “भारत और विश्व” आदि उनके द्वारा लिखी गई उत्कृष्ट किताबें है। वे अक्सर किताबे अंग्रेज़ी भाषा मे लिखते थे।

17 अप्रैल 1975 को एक लम्बी बीमारी के बाद राधाकृष्णन का निधन हो गया। शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता है। हर वर्ष 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाकर राधाकृष्णन के प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है। इस दिन देश के विख्यात और उत्कृष्ट शिक्षकों को उनके योगदान के लिए पुरुस्कार प्रदान किए जाते हैं। राधाकृष्णन को मरणोपरांत 1975 में अमेरिकी सरकार द्वारा टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार धर्म के क्षेत्र में उत्थान के लिए प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार को ग्रहण करने वाले वें प्रथम गैर-ईसाई सम्प्रदाय के व्यक्ति थे। डॉ राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक बन कर बिताए। शिक्षा के क्षेत्र में और एक आदर्श शिक्षक के रूप मे उनको हमेशा हमेशा याद किया जाएगा।

Sponsored



Follow Us

Yop Polls

तीन तलाक से सबसे ज़्यादा फायदा किसको?

Young Blogger

Dont miss

Loading…

Related Article

Subscribe

यूथ से जुड़ी इंट्रेस्टिंग ख़बरें पाने के लिए सब्सक्राइब करें

Subscribe

Categories