Wednesday, September 6th, 2017 23:32:00
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ताउम्र साहिर लुधियानवी को चाहती रहीं अमृता प्रीतम




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अमृता प्रीतम का नाम याद आते ही हम सबको याद आती हैं प्रेम में डूबी हुई कविताएँ।वो कविताएँ जो कच्ची उम्र में अच्छी तो लगें पर समझ न आएं।सच में कुछ जादू ही था अमृता और उनकी कविताओं में।आप पसंद करें तो अच्छा और न करें तो भी उन्हें नकार नहीं सकते। अमृता 20वीं सदी की बेहतरीन साहित्यकार थीं। उन्हें पंजाबी की पहली और सर्वश्रेष्ठ कवयित्री माना जाता है। उनकी लोकप्रियता सिर्फ भारत में नहीं, सीमा पार पाकिस्तान में भी उतनी ही है। पंजाबी के साथ-साथ अमृता ने हिन्दी में भी लेखन किया। उनकी रचनाओं को पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है और उनकी किताबें पंजाबी, हिन्दी, उर्दू,इंग्लिश, स्पेनिश, रशियन, इटालियन जैसी कई भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखीं। अमृता ने अपनी रचनाओं में भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के दर्द, दंगो, किस्सों और कहानियों को बख़ूबी उतारा।कविताएँ तो कवि के अंतरमन की उधेड़बुन होती हैं, उनकी सोच और दिल का आइना होती हैं, यह बात अमृता की हर रचना में देखी जा सकती है। ऐसा लगता था मानो वह उम्र भर खुद से ही उलझती रहीं। बेबाक, बिना डरे अपनी बात कह देना उनकी खासियत थी, उनकी चर्चित आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में उन्होंने मशहूर गीतकार-शायर साहिर लुधियानवी से अपनी बेपनाह मोहब्बत के किस्से भी बिना किसी झिझक के कह दिये।

अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1929 में गुंजरावाला,पंजाब में हुआ था, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान की जागीर हो गया। बंटवारे में लाखों लोगों को अपनी जन्मभूमि छोड़ पलायन करना पड़ा था, उनमें से एक अमृता भी थीं। उनका परिवार भी हिन्दुस्तान आ गया था मगर उनका दिल अक़्सर लाहौर की गलियों में भटकता रहता था। विभाजन के वक़्त वह ट्रेन में बैठ कर दिल्ली आ रही थीं, तब उन्होंने एक कविता ‘आज अख्खां वारिस शाह नुं’ (आज कहुं मैं वारिस शाह से) लिखी जो सालों बाद तक उनकी पहचान के रूप में जानी गई। 11 साल की उम्र में ही उनकी मां गुज़र गईं। तन्हाई के मौसमों में कागज़ और कलम ने अमृता को सहारा दिया और वह अपने मन की बातें कविताओं के ज़रिए बयां करने लगीं। महज़ सोलह साल की उम्र में उनका पहला कविता संग्रह ‘अमृत लहरें’ (1936) प्रकाशित हुआ। सोलह साल की उम्र में ही उनका विवाह ‘प्रीतम सिंह’ से हो गया और ‘अमृता कौर’ अमृता प्रीतम बनीं मगर इस रिश्ते में लगातार दरारें आती रही और अंततः 1960 में उनका तलाक हो गया। 1945 के दौर तक उनकी दर्जनों कविताएं प्रकाशित हुईं।

आज कहूँ मैं ‘वारिस शाह’ से, कहीं कब्रों से तू बोल,

वो राज़ किताबी इश्क़ का, कोई अगला पन्ना खोल,

इक रोई थी बेटी पंजाब की, तूने लिख-लिख विलाप किया,

आज रोएं लाखों बेटियां, कहें तुझे ओ वारिस शाह,

हे दर्दमंदो के हमदर्द, उठ देख अपना पंजाब,

बिछी हुई हैं लाशें खेतो में, और लहू से भरी है चेनाब,

टप-टप टपके कब्रों से, लहू बसा है धरती में,

प्यार की शहजादियां, रोएं आज मज़ारों पे,

आज सभी फरेबी बन गए, हुस्न इश्क़ के चोर,

आज कहां से लाएं ढूंढ कर, वारिस शाह एक और!

एक उपन्यासकार के रूप में उनकी पहचान ‘पिंजर’ नामक उपन्यास से कायम हुई। जिसमें उनके महिला केंद्रित किरदार को बहुत तारीफें मिली और इस पर एक पुरस्कृत फिल्म भी बनीं। उन्होंने तक़रीबन 6 उपन्यास, 6 कहानी संग्रह, 2 संस्मरण, 15 से अधिक कविता संग्रह, ‘अक्षरों के साये’ और ‘रसीदी टिकट’ नामक 2 आत्मकथा लिखीं। रसीदी टिकट में वह लिखती हैं-“एक सपना था कि एक बहुत बड़ा किला है और लोग मुझे उसमें बंद कर देते हैं। बाहर पहरा होता है। भीतर कोई दरवाजा नहीं मिलता। मैं किले की दीवारो को उंगलियों से टटोलती रहती हूं, पर पत्थर की दीवारों का कोई हिस्सा भी नहीं पिघलता। सारा किला टटोल-टटोल कर जब कोई दरवाजा नहीं मिलता, तो मैं सारा जोर लगाकर उड़ने की कोशिश करने लगती हूं। मेरी बांहों का इतना जोर लगता है कि मेरी सांस चढ़ जाती है। फिर मैं देखती हूं कि मेरे पैर धरती से ऊपर उठने लगते हैं। मैं ऊपर होती जाती हूं, और ऊपर, और फिर किले की दीवार से भी ऊपर हो जाती हूं। सामने आसमान आ जाता है। ऊपर से मैं नीचे निगाह डालती हूं। किले का पहरा देने वाले घबराए हुए हैं, गुस्से में बांहें फैलाए हुए, पर मुझ तक किसी का हाथ नहीं पहुंचता।”

अमृता के व्यक्तित्व में जो साहस था, सामाजिक रूढ़िवादियों के विरुद्ध जो विद्रोही भावना थी, वह बचपन के दिनों से ही उपजने लगी थीं और बंटवारे ने उस आग में और घी डाल दिया। प्रेम और संवेदना की कविताएं कुछ वर्षों तक लिखने के बाद उन्होंने अपना रूख बदला और समाज को दर्पण दिखाने का कार्य अपनी रचनाओं से शुरू किया। अमृता ने कई सामाजिक मंचों और सम्मेलनों में खुलकर एक धर्म मुक्त समाज बनाने की बातें कहीं। विश्व के कई देशों और सभ्यताओं के साहित्यकारों के बीच, अपनी विद्रोही रचनाएं पढ़ी और प्रशंसा बटोरी। उन्होंने दूसरे विद्रोही कवियों-लेखकों को भी भरपूर सुना और समझा। वे पहली महिला साहित्यकार थीं जिन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से नवाज़ा गया। साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ भी प्राप्त हुआ।

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यह कैसे हो सकता है कि अमृता का नाम लिया जाए और साहिर लुधियानवी को याद न किया जाए। अमृता को साहिर से बेपनाह मोहब्बत थी और साहिर भी उन्हें चाहते थे मगर उन्होंने कभी इस रिश्ते को आगे बढ़ाने कि बात नहीं की। दोनों अंदर-ही-अंदर एक दूसरे के प्यार में ताउम्र सुलगते रहे पर कभी एक न हो पाए। साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे, कुछ नहीं कहते, बस एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे। उनके जाने के बाद अमृता उनकी सिगरेट की बटों को उनके होंठों के निशान के हिसाब से दोबारा पिया करती थीं। इसी तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लग गई। दोनों एक दूसरे को प्यार भरे खत लिखते थे मगर साहिर के लाहौर से मुंबई चले आने और अमृता के दिल्ली आ बसने के कारण दोनों में दूरी पनपने लगी। गायिका सुधा मल्होत्रा की तरफ साहिर के झुकाव ने भी इस दूरी को और बढ़ाया। पर जब दिल के तार जुड़े हों तो दूरियां क्या कर सकतीं हैं। दोनों एक साथ तो रहे नहीं पर साहिर के गीतों-नज़्मों में और अमृता की रचनाओं में एक-दूसरे के लिए प्यार और उस प्यार का दर्द आसानी से देखा जा सकता है।

1958 में साहिर के बाद उन्हें ‘इमरोज़’ से इश्क़ हुआ। या यूं कहें कि इमरोज़ को उनसे इश्क़ हुआ। दोनों एक ही छत के नीचे वर्षों तक साथ रहे मगर दोनों के कमरे अलग हुआ करते थे। इमरोज़ को साहिर और अमृता की दास्तां की ख़बर थी मगर वह इस बात से बिल्कुल सहज थे। दोनों का रिश्ता बहुत अनूठा था, उन्होंने कभी एक-दूसरे से नहीं कहा कि वो उनसे प्यार करते हैं। अमृता रात के समय लिखना पसंद करती थीं। जब न कोई आवाज़ होती, हो न टेलीफ़ोन की घंटी बजती हो और न कोई आता-जाता हो। इमरोज़ लगातार चालीस-पचास बरस तक रात के एक बजे उठ कर उनके लिए चाय बना कर चुपचाप उनके आगे रख देते और फिर सो जाया करते थे। अमृता को इस बात की ख़बर तक नहीं होती थी। इमरोज़ उनके ड्रायवर भी थे। वे हर जगह अमृता को अपने स्कुटर पर छोड़ने जाया करते थे। इसी तरह दोनों का ‘खामोश-इश्क़’ उम्र भर चलता रहा।

अमृता का आखिरी समय बहुत तकलीफों और दर्द में बीता। बाथरूम में गिर जाने की वजह से उनकी हड्डी टूट गई थी, जो कभी ठीक नहीं हुई और इस दर्द ने उनका दामन कभी नहीं छोड़ा। इमरोज़ ने अंतिम दिनों में उनका बहुत ख़्याल रखा। उन्होंने अमृता की बीमारी को भी अपने प्यार से खूबसूरत बना दिया था। 31 अक्टूबर 2005 में उन्होंने आख़िरी सांसे ली और इस दुनिया से अपना रिश्ता ख़त्म कर लिया। एक पंक्ति याद आती है जो उन्होंने साहिर की मृत्यु पर लिखी थी-

“सोच रही हूं, हवा कोई भी फ़ासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फ़ासला  तय किया करती थी। अब इस दुनिया और उस दुनिया का फ़ासला भी जरूर तय कर लेगी”। एक औरत, औरतों के प्रति समाज का नजरिया, एक लेखिका और एक प्रेमिका के बीच ही अमृता ताउम्र उलझती रहीं और इन  उलझनों के दस्तावेजों के दौर पर उनकी सैकड़ों रचनाएं हमारे बीच मौजूद हैं। जो हर दम अनकी जीवनगाथा बयान करती रहेंगी। बुधवार 31 अगस्त अमृता का जन्मदिन है।अमृता की यादें कभी जाती नहीं पर जन्मदिन में याद करना भी एक रस्म है।

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