Sunday, August 27th, 2017
Flash

सबसे बड़ा अखाड़ा ‘नमो सियासी संघ’, सबसे विद्वान सन्त ‘श्रीश्री मोदी बाबा’




[avatar user=”bhavesh” size=”thumbnail” align=”left” /]

उज्जैन में सिंहस्थ चल रहा है। कुछ ही दिन और बचे हैं। हर तरह की खबरों के बीच पिछले एक सप्ताह से वैचारिक महाकुम्भ की खबरों और उनसे भी अधिक विज्ञापनों ने ऐसा उलझा रखा था कि न जाने क्या बला है! क्या अजूबा होने जा रहा है? शनिवार को तमाम अटकलों और मनगढ़ंत आकलनों का पटाक्षेप हो गया जब प्रधानमंत्री 1008 श्रीश्री नरेंद्र मोदीजी विचार महाकुम्भ में प्रकट हुए और अपने उद्बोधन से इतिहास रच गये। वाकई, पहली बार हुआ जब किसी प्रधानमंत्री ने साधु-सन्तों-विद्वानों के बीच उपदेश दिये, सलाह दी और कुछ अखबारों के मुताबिक मंत्र दिये। है ना कमाल!

modi shankracharya

द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानन्द सरस्वती ने अपना ऐतराज़ यह कहकर जताया कि अब तक परम्परा यही थी कि राजा-महाराजा साधु-सन्तों के पास ज्ञान लेने आया करते थे, मंत्रिपरिषदें विद्वान सन्तों की सलाहों से निर्णय लिया करती थीं लेकिन यहां तो उल्टी गंगा बही। प्रधानमंत्री आये और उल्टे हम सन्तों को ही मशवरे और उपदेश देकर चले गये। उन्होंने यह भी कहा कि विचार महाकुम्भ होने में आपत्ति नहीं है लेकिन सिंहस्थ में इसे राजनीतिक बैठक का रूप देना जायज़ नहीं है। जो काम मंत्रिपरिषद या संसद में हो सकता है उसके लिए धार्मिक आयोजन को स्थल बनाना कुछ और ही इंगित करता है।

मोदी जी ने आखिर ऐसा क्या कह दिया जो शंकराचार्य जी और कुछ और विद्वान सन्तों को रास नहीं आया। समाचार पत्रों में आपने पढ़ ही लिया होगा। अब प्रश्न यह है कि हिन्दू समाज में कुम्भ जैसे धार्मिक आयोजन का औचित्य क्या है? कुम्भ में सन्तों के एकत्रित होने की आवश्यकता क्या है? प्रश्न नाजायज़ नहीं हैं। विचार करने की बात है कि सदियों से आयोजित हो रहे इस मेले को क्या कभी शासकीय आयोजन माना या बनाया गया है? यह धर्म में आस्था रखने वाले लोगों का धार्मिक और सामाजिक आयोजन रहा है। कुम्भ तो तब भी होता था जब देश आज़ाद नहीं हुआ था और इन्हीं चार सथानों पर होता था। फिर क्या ज़रूरत आ पड़ी कि हज़ारों करोड़ रुपये का बजट आवंटित कर, सरकार की पूरी मशीनरी को उज्जैन में तैनात कर, जगह-जगह भारी-भरकम प्रचार पटलों पर माननीय शिवराज जी हाथ जोड़कर सिंहस्थ का न्यौता दे रहे हैं और मेज़बान की भूमिका में दिख रहे हैं? इससे पहले 2004 में हुए सिंहस्थ के दौरान मध्य प्रदेश की ही मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती जी ने प्रधानमंत्री सहित कई गणमान्य राजनीतिज्ञों को पत्र लिखकर कहा था कि सिंहस्थ में न पधारें ताकि आपकी सुरक्षा के प्रबंध में राज्य व व्यवस्था पर अतिरिक्त भार न पड़े। अब स्थिति एकदम उलट है। विचार तो करना ही चाहिए।

सिंहस्थ से संबंधित जितने चित्र समाचार पत्रों में इस बार छपे हैं, उठाकर देखिए सबसे ज़्यादा आपको शिवराज ही नज़र आएंगे। उज्जैन में सिंहस्थ चल रहा है या भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई राष्ट्रीय कार्यक्रम? चित्र और समाचार देखकर यह संदेह स्वाभाविक रूप से होने लगता है। दबी ज़ुबान में कई प्रकार की चर्चाएं हो रही हैं। कोई कह रहा है कि राम मन्दिर निर्माण की भूमिका और रूपरेखा गुपचुप ढंग से तैयार की जा रही है। किसी का मत है कि ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास जारी है कि यदि आप हिन्दू हैं तो आपको भाजपा एवं संघ में निष्ठा रखनी ही होगी। आदि-आदि…

ऐसा हो रहा है या नहीं, समय के पन्ने उलटेंगे तो पता चल ही जाएगा। अभी तो मोदीजी की बात करते हैं। अपने अतिविचारोत्तेजक वक्तव्य में मोदीजी ने पर्यावरण का मुद्दा बखूबी रखा और सन्तों को सलाह दी कि इस पर चिन्तन करें और समाज को जागरूक करें। शिवराज जी ने विचार महाकुम्भ के बाद जो सिंहस्थ डिक्लेरेशन प्रस्तुत किया, उसमें एक बात यह भी कही कि नदियां बचाने का अभियान शुरू होगा और नदियों को पुनरुज्जीवित किया जाएगा। यहां प्रश्न यह है कि नदियां बचाने के लिए सिंहस्थ और विचार महाकुम्भ होने की प्रतीक्षा की जा रही थी क्या? मप्र में पिछले 12 साल से अधिक समय से भाजपा की सरकार है और इस साल सिंहस्थ होने से पहले क्षिप्रा सूख चुकी थी? नर्मदा जल से उसे भरने की व्यवस्था की गयी, क्यों? पुण्य सलिला, अमृत-मोक्ष प्रदायिनी सूख रही थी तब पर्यावरण सुरक्षा और नदियां बचाने की योजनाएं क्यों नहीं बनीं? बनीं तो उन पर अमल क्यों नहीं हुआ?

इस संदर्भ में एक बिन्दु पर विचार और किया जाना चाहिए कि नदियों को जोड़ने की सरकारी योजनाएं और विचार क्या वास्तव में पर्यावरण के हित में हैं? हमारे ही देश के कुछ पर्यावरणविद इस विचार को पर्यावरण के लिए और बड़ा खतरा मान रहे हैं। एक मानवीय प्रश्न और भी है? इस समय जब देश के कई राज्य भारी सूखे के प्रकोप को झेल रहे हैं तब राजनेताओं और सन्तों को इस पर विचार नहीं करना चाहिए था? जीवन प्रदायिनी के तट पर हुए विचार मंथन में क्या देश के शीर्ष नेताओं और विद्वानों को इस विषय पर किसी प्रकार की भूमिका या नीति पर विमर्श नहीं करना चाहिए था? अन्य राज्यों के सूखा-संकट पर नहीं तो कम से कम बुंदेलखंड का जो हिस्सा मप्र में है और सूखे के विकराल दृश्य को राज़ देख रहा है, उसी के बारे में कुछ विचार कर लिया जाता। करोड़ों रुपये की जितनी राशि विचार करने में खर्च कर दी गयी, यदि बुंदेलखंड के लिए आवंटित की जाती तो शायद लाखों लोगों का भला हो जाता।

प्रधानमंत्री जी विचार महाकुम्भ के अंतिम दिन प्रकट हुए और कहा कि कथा करने से नहीं कर्म करने से ही बदलाव आएगा। वैसे यह कोई नया विचार तो नहीं है लेकिन फिर भी अगर मप्र सरकार को उन्होंने यह सूत्र पहले ही बता दिया होता तो संभवतः विचार महाकुम्भ के स्थान पर सरकार बुंदेलखंड जाती और कुछ सत्कर्म कर लेती। अब भी क्या देर हुई है, सरकार जा तो अब भी सकती है। जाएगी कि नहीं, बुंदेलखंड का कुछ भला होगा या नहीं? या फिर मोदी जी की पार्टी की सरकार उन्हीं के महाविचार की अवहेलना कर देगी? यह प्रश्न अब भी मुंह बाए खड़ा है।

अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्रगिरि महाराज ने तो विचार महाकुम्भ को लेकर यह तक कह दिया कि यह कार्यक्रम राजनीति का था। उनसे भूल हो गयी कि वह उस कार्यक्रम में शरीक हुए। उन्होंने प्रधानमंत्री के वक्तव्य की भाषा और लहजे की भी आलोचना की। एक छोटा सा समाचार यह भी पढ़ने में आया कि विचार महाकुम्भ में कई विद्वानों को नहीं बुलाया गया जो उज्जैन में ही थे। यह आरोप कुछ सन्तों ने लगाया। तो, कुल मिलाकर अनेक विद्वान बुलाये नहीं गये और कुछ जो बुलाये गये, वे विचार महाकुम्भ में जाकर पछताये। ऐसे में क्या समझा जाये? स्पष्ट है कि कहीं न कहीं राजनीति और धर्म में भी सत्ताप्रियता हावी रही। न तो विमर्श खुलकर हुआ, न ही सार्थक। यानी खाया-पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना।

कुछ अन्य विद्वान सन्तों का मत भी जानने योग्य है। जूना अखाड़ा के महामंडलेश्वर उमाकांत सरस्वती ने कहा कि उन्हें न्यौता मिला था लेकिन वे विचार महाकुम्भ में नहीं गये क्योंकि वहां सन्तों को दर्शक दीर्घा में बैठकर केवल भाषण सुनने के लिए बुलाया गया। वैसे भी कुम्भ में साधु-सन्त धर्म संसद करते हैं तो यह अनावश्यक ही है। श्रीमठ शिविर संरक्षक जगदगुरु रामानंदाचार्य रामनरेशाचार्य ने तो विचार महाकुम्भ को सिंहस्थ 2016 का कलंक कहा। आयोजन को समझ से परे बताकर उन्होंने कहा कि इसमें प्रधानमंत्री को नहीं आना चाहिए था। न1सिंहधाम, जबलपुर के श्यामदास महाराज ने कहा कि राजनीति में धर्म होना चाहिए, धर्म में राजनीति नहीं। राजनीति में शुचिता खो रही है, इस पर विचार होना चाहिए।

सोशल मीडिया पर महाकुम्भ को लेकर क्या विमर्श हुआ? कुछ मोदी भक्तों के सामान्य तर्कों को छोड़ दें तो वातावरण लगभग निराशाजनक एवं आलोचनात्मक ही दिखा। विचार महाकुम्भ के लिए एक ट्विटर अकाउंट खोला गया था जिसके फॉलोअर 640 थे और कुल 468 ट्वीट्स पोस्ट हुए। यहां यह भी याद रखिए कि मोदीजी के ट्विटर पर करोड़ों फॉलोअर्स हैं। एक बड़ा रोचक पोस्ट सोशल मीडिया पर मिला। पढ़िए –
“भारत को अब गहन मौन में जाने की जरूरत है। हम तय करें कि अगले पांच साल तक सिर्फ काम करेंगे। कोई सभा, कोई मंच कोई भाषण, कोई उपदेश नहीं। हम यूएन में इस लिखित घोषणा के साथ सामने आएं कि इस तारीख से इस तारीख के बीच हमने तय किया है कि संतों समेत हमारे लीडर कुछ बोलेंगे नहीं। बिना तमाशे के सिर्फ काम करेंगे। अभी बेसुरे कानों में पत्थर की तरह बरस रहे हैं। पूरा माहौल बकवास से भर गया है- विश्वगुरु बनेंगे, दुनिया हमारा लोहा मानेगी, यह करेंगे, वह करेंगे, हम यहां थे, हम वहां थे। कृपापूर्वक हम गरीबों पर दया कीजिए। बातों से बाज आइए। हमारी खून-पसीने की कमाई सही काम और सही जगह पर खर्च कीजिए। उपदेश मत दीजिए।“

अब लोग स्वयं ही तय करें कि विचार महाकुम्भ वास्तव में क्या हुआ? कुछ सन्तों ने तो यह आरोप भी लगाया कि जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सनातन धर्म के विरोधी हैं, उन्हें इस आयोजन में बुलाया गया। बात फिर वहीं आ जाती है कि संसद या मंत्रिपरिषद का बैठकनुमा आयोजन कुम्भ में करना ज़रूरी क्यों था? भोपाल में पिछले वर्ष हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन को जिस तरह से सरकारी और बैठकनुमा रंग दिया गया, वही यहां कुम्भ को भी। विश्व के सामने क्या और कैसी छवि प्रस्तुत करने का मंतव्य है, समझ से परे है।

Sponsored



Follow Us

Yop Polls

तीन तलाक से सबसे ज़्यादा फायदा किसको?

Young Blogger

Dont miss

Loading…

Related Article

No Related

Subscribe

यूथ से जुड़ी इंट्रेस्टिंग ख़बरें पाने के लिए सब्सक्राइब करें

Subscribe

Categories