टीम इंडिया के सबसे सफल कप्तान एमएस धोनी ने वनडे और टी-20 की कप्तानी से इस्तीफा देकर ये साबित कर दिया है कि वाकई वो देश के हीरो हैं। धोनी का ये फैसला उसी अंदाज में हुआ जिसके लिए जाने जाते हैं। क्रिकेट के जानकार ये कयास लगा रहे थे कि धोनी शायद चैंपियंस ट्राफी तक कप्तान बने रहेंगे। लेकिन जिस तरह धोनी क्रिकेट की पिच पर लगातार साहसिक फैसले लेकर क्रिकेट प्रेमियों को चौंकाते रहे हैं, उसी तरह उन्होंने अपने अंदाज में ये फैसला लिया। इससे पहले 2014 में भी धोनी ने आस्ट्रेलिया दौरे पर अंतिम टेस्ट के पहले टेस्ट कप्तानी छोड़कर सबको हैरान कर दिया था।
धोनी ने सही वक्त पर कप्तानी छोड़ी है। इससे न सिर्फ उनका कद बढ़ा है बल्कि उन्होनें भारतीय क्रिकेट में एक अच्छी परंपरा की शुरुआत की है। 2014 में टेस्ट क्रिकेट की कप्तानी छोड़ने के बाद युवा विराट कोहली टेस्ट टीम के कप्तान बने। विराट की कप्तानी में भारतीय टीम ने लगातार जीत का परचम लहराया। कई बार ऐसा देखा गया है कि अगर किसी युवा को कप्तानी का जिम्मा दिया जाता है तो उन पर मानसिक दबाव आ जाता है और उनका व्यक्तिगत प्रदर्शन खराब हो जाता है। ठीक इसके विपरीत कप्तान बनने के बाद विराट की बैटिंग में और निखार आ गया। विराट की टेस्ट कप्तानी का सक्सेस रेशियो धोनी से वेहतर रहा है। टीम के नये कोच अनिल कुंबले के साथ विराट की ट्यूनिंग भी शानदार चल रही है। 2019 में वर्ल्ड कप होना है और उससे पहले चैंपियंस ट्राफी। ऐसे में एमएस धोनी को लगा कि अगर तीनों फार्मेट में एक ही कप्तान हो तो खिलाड़ियों की ट्यूनिंग कप्तान के साथ ज्यादा अच्छी होगी और वर्ल्ड कप 2019 के लिए भारतीय टीम की तैयारी बेहतर होगी। इसलिए धोनी का ये फैसला टीम हित में और साहसिक है। हालांकि आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के क्रिकेट मैनेजमेंट ने अलग-अलग फार्मेट में अलग-अलग कप्तान की परंपरा अपनाई है। भारत में ये परंपरा सफल नहीं रहा है। एमएस धोनी लंबे समय तक तीनों फार्मेट के कप्तान रहे हैं तो शायद उनसे बेहतर और कौन जान सकता है कि ये भारतीय टीम के लिए कितना जरूरी है। इसलिए ये डिबेट का विषय नहीं है।
भारतीय क्रिकेट में अब तक ऐसा कम देखने को मिला है कि किसी खिलाड़ी ने युवाओं को मौका देने के लिए अपने करियर का अंत किया हो या कप्तानी छोड़ी हो। इसतरह के फैसले ज्यादातर आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के क्रिकेट इतिहास में देखा जाता था। आस्ट्रेलिया के रिकी पांटिंग, इंग्लैंड के केविन पीटरसन और साउथ अफ्रीका के जैक कलिस सरीखे खिलाड़ियों ने उम्मीद से पहले अपने करियर से संन्यास लेकर सबको चौकाया था। अगर भारतीय क्रिकेट के इतिहास को आप देखेंगे तो इक्के दुक्के खिलाड़ियों को छोड़कर ज्यादातर ने सही समय पर आगे आकर न तो कप्तानी छोड़ी और न ही संन्यास लिया। कई खिलाड़ियों का करियर शानदार रहा है। लेकिन करियर के अंत में जब वे अच्छे प्रदर्शन करने में नाकाम रहे, फिर भी टीम में बने रहे। साहसिक फैसले लेकर अपने संन्यास की घोषणा नहीं की या कप्तानी नहीं छोड़ी। सचिन इसके अपवाद रहे हैं। टीम मैनेजमेंट उन खिलाड़ियों को उनके कद के कारण ढोता रहा और इससे युवाओं को सही वक्त पर मौका नहीं मिला। अंत में देखा जाय तो इससे क्रिकेट का नुकासान होता है।
महेंद्र सिंह धोनी ने सही वक्त पर कप्तानी छोड़कर एक मिसाल कायम की है। क्रिकेट ही नहीं भारत में हर क्षेत्र में इस तरह के साहसिक फैसले का अभाव है। इस तरह का फैसला निर्णायक और नैतिक रूप से उच्च आचरण रखने वाला व्यक्ति ही कर सकता है। राजनीति, खेल, मनोरंजन, मीडिया या कारपोरेट वर्ल्ड हो, हर क्षेत्र में देखने को मिलता है कि करियर के आखिरी पड़ाव पर भी लोग मोह नहीं छोड़ पाते हैं और उनके कद के कारण उन्हें ढोना पड़ता है। अभी देश की राष्ट्रीय राजनीति में जिस पार्टी की सरकार है। उसके इतिहास को ही देखा जाय तो ये समझ में आ जाएगा कि इस तरह के आचरण का देश में कितना अभाव है। एक मौका ऐसा आया कि पार्टी को कुछ बड़े नेताओं को जिम्मेदारी से हटाना पड़ा और उन्हें सफाई देनी पड़ी कि युवाओं को मौका दिया गया है। इसलिए धोनी का ये फैसला देश के लिए एक नई परंपरा की शुरुआत के तौर पर भी देखा जा सकता है। अब जरूरत इस बात की है कि इस परंपरा को कायम रखते हुए राजनीति एंव अन्य दूसरे क्षेत्र के कुछ नामचीन हस्तियां आगे आएं और युवाओं के लिए अपनी कुर्सी छोड़ें। अगर ऐसा होता है तो देश में एक अच्छा माहौल तैयार होगा और युवाओं के नेतृत्व में देश विकास के पथ पर और तेजी से आगे बढ़ सकेगा। इस समया देश के सबसे बड़े सूबे में भी जो राजनीतिक दंगल चल रहा है, वो भी यही दर्शा रहा है कि अगर आप सही समय पर चीजें नहीं छोड़ते हैं, तो किस तरह आपका ग्राफ डाउन होता है। धोनी के इस बड़े फैसले ने न सिर्फ उनका सम्मान बढ़ा है, ब्लकि पीढी दर पीढ़ी अब वे नजीर बन गए है…
लेखक
अभिषेक मेहरोत्रा