Friday, September 1st, 2017 19:39:01
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आसान नहीं होता गुलज़ार हो जाना




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By Anil Kumar Pandey

guljar

भारतीय सिनेमा की महत्वपूर्ण शख्शियतों में से एक गुलज़ार का वास्तविक नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा है। गुलज़ार की पहचान वैसे तो प्रसिद्ध हिन्दी गीतकार के रूप में है लेकिन गुलज़ार को किसी एक खास कला में महारत नहीं बल्कि फिल्म निर्माण और साहित्य से जुड़ी कई कलाओं और विधाओं जैसे पटकथा लेखन, फिल्म निर्देशन, नाट्यकला, कविता लेखन में महारत प्राप्त है। किसी व्यक्ति का एक कला में पारंगत होना स्वाभाविक है। लेकिन इतनी विधाओं में पारंगत होकर इन विधाओं को जीवंत कर देने का काम सिर्फ गुलज़ार ही कर सकते हैं। साहित्य एवम् फिल्मों में रुचि रखने वाला शायद ही कोई शख्स होगा जो कि  गुलज़ार के नाम से वाकिफ ना हो। गुलज़ार का जन्म 18 अगस्त सन् 1936 को तब के भारत के झेलम जिले के दीना गांव में जो कि अब पाकिस्तान का हिस्सा है, में हुआ था। गुलज़ार का प्रारंभिक जीवन अत्यंत ही दुरूह परिस्थितियों से गुजरा। गुलज़ार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं। गुलज़ार को बचपन में अपनी मां का प्यार ज्यादा दिन नसीब नहीं हो सका, वे बचपन में ही उन्हें छोड़कर चल बसीं। गुलज़ार को अपनी मां की आंचल की छांव और पिता का दुलार कभी नहीं मिला। गुलज़ार अपने पिता की नौ संतानों में से एक थे। देश की आजादी के बाद हुए देश के बंटबारे में गुलज़ार  का गांव पाकिस्तान में चला गया। तत्काल उपजी इस परिस्थिति में गुलज़ार का परिवार पंजाब प्रांत के अमृतसर में आकर बस गया।

गुलज़ार को बचपन से ही कविताएं लिखने का शौक था। लेकिन उनके पिता का मानना था कि कविता या फिर कहानी लिखकर आजीविका नहीं चलाई जा सकती है। गुलजार के लिए वे अपने रिश्तेदारों से कहा करते थे “ ये भाईयों से उधार मांगेगा और गुरुद्वारा के लंगर में खाना खाएगा। ”  गुलज़ार का ज्यादातर बचपन दिल्ली में  ही बीता। गुलज़ार अपने  जीवन के संघर्ष के शुरुआती दिनों में दिल्ली के सब्जी मंडी स्थित पेट्रोल पंप पर काम करते थे। “ परिवार के पास उनकी पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे। इसलिए उन्हें पेट्रोल पंप पर नौकरी करनी पड़ी। हवा में लहराती पेट्रोल की तेज खुशबू के साथ उन्होंने अपनी शायरी को कागज पर उतारना शुरू किया।”  बाद में रोज़ी-रोटी की तलाश और फिल्मों में करियर बनाने के लिए गुलज़ार दिल्ली से तत्कालीन बंबई चले गए। जहां वे एक गैराज में बतौर मैकेनिक काम करने लगे और फुर्सत के समय कवितायें लिखने लगे। बिमल राय के संपर्क में आने के बाद उनके सहायक के रूप में गुलज़ार ने पटकथा और संवाद लेखन, संपादन, फोटोग्राफी  आदि  का ज्ञानार्जन किया और इसी समय गुलज़ार बांग्ला, अंग्रेजी  और उर्दू की कालजयी साहित्यिक कृतियों के साथ ही इन भाषाओं के समकालीन लेखन से भी परिचित हुए। बाद में उन्हें हृषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार जैसे नामचीन फिल्मकारों के  साथ बतौर सहायक काम करने का भी मौका मिला।

ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक के बाद गुलज़ार ने कई सफल फिल्मों का भी निर्देशन किया है। गुलज़ार द्वारा पहली निर्देशित फिल्म ‘मेरे अपने’ थी जो कि सन् 1971 में आयी।‘मेरे अपने’ सन् 1969 में आई प्रसिद्ध निर्देशक तपन सिन्हा कि बंगाली फिल्म ‘अपांजन’ का रीमेक थी। वहीं सन् 1972 में आयी फिल्म ‘कोशिश’ को आलोचकों ने खूब सराहा था। यह फिल्म एक गूंगे बहरे दंपत्ति के जीवन पर आधारित थी। संजीव कुमार और जया भादुडी अभिनीत इस फिल्म के जरिये गुलज़ार ने भारी जोखिम उठाया था। जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई उस वक्त समानांतर सिनेमा का ज्यादा चलन नहीं था, सिर्फ फॉर्मूला फिल्में का ही बोलबाला था। फिल्म ‘कोशिश’ बनाने की प्रेरणा गुलज़ार को हॉलीवुड फिल्म ‘द साउंड ऑफ म्युजिक’ से मिली थी।  गुलज़ार निर्देशित ‘कोशिश’ इस बात को साबित करती है कि शारीरिक रूप से कमजोरी के बावजूद ये आम इंसान से किसी तरह कम नहीं होते हैं। यह बॉलीवुड की क्लासिकल फिल्मों में से एक है। इसके लिए गुलज़ार को  बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था।

गुलज़ार ने अभिनेता संजीव कुमार के साथ ‘आंधी’, ‘मौसम’, ‘अंगूर’ और ‘नमकीन’ जैसी फिल्में भी निर्देशित की। गुलज़ार की आरंभिक दो फिल्मों में तत्कालीन समय की सच्चाई को बेहतर समझा जा सकता है। ‘मेरे अपने’ और ‘आंधी’ में गुलज़ार ने जहां सत्ता के हथकंडों और उसके द्वारा नई पीढ़ी के गलत इस्तेमाल को रेखांकित किया, वहीं इस व्यापक हिंसा और अपराधीकरण के पीछे राजनीति के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किया है। ‘आंधी’ गुलज़ार की बेहतरीन फिल्मों में से एक है। यह फिल्म हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर द्वारा ‍‍लिखे गए उनके हिंदी उपन्यास ‘काली आंधी’ पर आधारित है।  राजनीतिक ड्रामे पर आधारित इस फिल्म को कुछ लोगों ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से जोड़कर देखा और आपातकाल के दौरान इस फिल्म पर प्रतिबंध भी लगाया गया था। इस फिल्म में गुलज़ार ने उस महिला की जद्दोजहद को दिखाया ‍जो अपने राजनीतिक करियर को अपने प्रेम के स्थान पर प्राथमिकता देती है। ये दोनों फिल्में भारतीय हिन्दी सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुईं, जिन्हें आम दर्शकों के साथ ही बुद्धजीवियों ने भी  खूब सराहा।  सन् 1975 में ही गुलज़ार की ‘आंधी’, ‘मौसम’ के अलावा खुशबू भी प्रदर्शित हुई थी। फिल्म ‘खुशबू’  बांग्ला भाषा के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरत चंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित थी। इन फिल्मों की पटकथा, संवाद तथा गीत खुद गुलज़ार ने ही लिखे थे। सन् 1977 में गुलज़ार ने बच्चों के लिए ‘किताब’ नामक फिल्म बनाई। बाल मनोविज्ञान को इतनी गहराई से अभिव्यक्त करने वाली फिल्में हिन्दी सिनेमा में दुर्लभ हैं। गुलज़ार की एक अन्य फिल्म ‘किनारा’ भी इसी वर्ष सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी। गुलज़ार को मीरा और कबीर बेहद पसंद हैं। इसी वजह से गुलज़ार ने हेमा मालिनी को लेकर ‘मीरा’ नामक फिल्म बनाई जो कि 1979 में प्रदर्शित हुई थी, जबकि कबीर पर टीवी धारावाहिक भी निर्देशित किया। अपनी गंभीर फिल्मों के लिए पहचाने जाने वाले गुलज़ार ने सन् 1982 में भारत की बेहतरीन हास्य फिल्मों में से एक ‘अंगूर’ बनाई। यह फिल्म शेक्सपियर के नाटक ‘द कॉमेडी ऑफ एरर्स’ पर आधारित है।

गुलज़ार पर बिमल रॉय, बासु भट्टाचार्य और ऋषिकेश मुखर्जी जैसे निर्देशकों का प्रभाव है। लिहाजा गुलज़ार की फिल्में भी इन निर्देशकों के प्रभाव से मुक्त नही हैं। यही वजह है कि गुलज़ार ने अपनी फिल्में सरल, मनोरंजक और दिल को छू लेने के अंदाज में पेश की जो कि सभी को आसानी से समझ में आ जाए। गुलज़ार की फिल्मों की ज्यादातर कहानियां साहित्य से ली गई हैं। ‘परिचय’ की कहानी बंगाली उपन्यास ‘रंगीन उत्तरें’ पर आधारित है। गुलज़ार निर्देशक के रूप में सत्तर के दशक में बेहद सक्रिय रहे हैं। बाद में धीरे-धीरे गुलज़ार ने फिल्में बनाना कम कर दिया। गुलज़ार द्वारा निर्देशित ‘नमकीन’ और ‘इजाजत’ बमुश्किल रिलीज हो पाई। सन् 1996 में गुलज़ार द्वारा निर्देशित फिल्म ‘माचिस’ को अच्छी सफलता मिली। ‘हु तू तू’ गुलज़ार द्वारा निर्देशित आखिरी फिल्म है। यह फिल्म सन् 1999 में प्रदर्शित हुई थी। गुजजार द्वारा निर्देशित फिल्में अपने आप में विशेष हैं। “ उनकी फिल्मों के पात्र भावुक और संवेदनाओं से भरे होते हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों की बारीकियां गुलज़ार की विशेषता है। उनकी फिल्मों के गीत कथानक के ताने-बाने में बुने होते हैं। गुलज़ार का दर्शन है कि “ कोई रिश्ता कभी ख़त्म नहीं होता, कोई रिश्ता कभी मरता नहीं है। हमेशा भावनाएं ही काम आती हैं। अंतत: भरोसा और विश्‍वास की जीत होती है।”  गुलज़ार द्वारा निर्देशित फिल्मों में ‘कोशिश’, ‘अचानक’ और ‘माचिस’, जैसी फिल्में शामिल है। जो कि लीक से हटकर बनी हैं। फिल्म निर्देशक के रूप में ‘हु तू तू’ गुलज़ार की आखिरी फिल्म है। इस फिल्म के बाद गुलज़ार ने फिल्म निर्देशन को अलविदा कह दिया।

भारतीय सिनेमा में गुलज़ार जैसे भावनात्मक कवि व लेखक का आना सही मायनों में कई तरह की चुनौतियों से भरा था, पर गुलज़ार के पास साहित्य और भाषा की समझ की ऐसी ताकत थी, जिसकी बदौलत उन्होंने एक साहित्यकार के रूप में भावुकता और संवेदनाओं का मर्मस्पर्शी चित्रण किया और इसी ताकत ने हिन्दी सिनेमा में एक सफल फिल्मकार, गीतकार व संवाद लेखक के रूप में उन्हें ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है, जहां पहुंचना आज किसी के लिए भी अत्यंत ही चुनौतीपूर्ण है।

गुलज़ार ने कई फिल्‍मों के लिए बेहतरीन गीत भी लिखे हैं। गुलज़ार ने अपना पहला गीत बिमल राय की  फिल्म ‘बंदनी’ के लिए लिखा था। ‘बंदनी’ के लिए गुलज़ार का नाम शैलेन्द्र के कहने पर बिमल रॉय के सहयोगी देबू सेन ने सुझाया था। गुलज़ार ने कई अन्य फिल्मों के लिए भी कई गीत लिखे हैं जिनकी फेरहिस्त अत्यंत ही लंबी है। मेरा कुछ सामान, यारा सिली सिली, दो दीवानें शहर में के साथ ही कजरारे कजरारे, चल छैयां छैया..और जय हो जैसे गीत अपने आप में उम्दा होने के साथ ही उनके लेखन की विशेषता को बताते हैं। यथा ‘ओमकारा’, ‘रेनकोट’, ‘पिंजरा’, ‘दिल से’, ‘आंधी’, ‘दूसरी सीता’, ‘इजाजत’ जैसी फिल्मों में उनके द्वारा लिखे गए गीत। टीवी धारावाहिक जंगल बुक के लिए ‘जंगल -जंगल बात चली है’  जैसा चर्चित गीत भी उनकी कलम से ही निकला है। इसी तरह सन् 1983 में शेखर कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘मासूम’ में भी ‘लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा, घोड़े की दुम पे मारा जो हथौड़ा’ गीत गुजजार ने ही बच्चों के लिए बड़ी खूबसूरती से  रचा था। इसके अतिरिक्त गुलज़ार ने कई फिल्मों जैसे ‘आंधी’ और ‘मीरा’ के लिए पटकथा लेखन के साथ ही संवाद लेखन का भी कार्य किया।

गुलज़ार का साहित्य से को पुराना नाता रहा है। उन्होंने खूब पढ़ा-लिखा है।  गुलज़ार की पहली पुस्तक ‘चौरस रात’ लघु कथाओं के संग्रह के रूप में सन् 1962 में  प्रकाशित हुई थी। इसके अलावा सन् 1963 में कविता संग्रह ‘जानम’, सन 1972 में कथा संग्रह ‘रावी पार’, सन् 1997 में ‘रात’, ‘चांद और मैं’ तथा सन् 2002 में ‘रात पश्मीने की खराशें’ प्रकाशित हुई थी। गुलज़ार ने फिल्म निर्माण का काम बिमल राय से सीखा था,  इसलिए बिमल राय को वह अपना गुरू मानते हैं। बिमल रॉय के निधन के बाद गुलज़ार ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक बने। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों के स्क्रीन प्ले और गीतों ने गुलज़ार को बेहद कामयाब बनाया। ऋषि दा के लिए गुलज़ार ने सबसे पहले फिल्म ‘आनंद’ के  संवाद लिखे थे। इस फिल्म के लिए गुलज़ार को सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का फिल्म फेयर पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। यह गुलज़ार का पहला फिल्म फेयर पुरस्कार था। इसके बाद तो मानों  गुलज़ार के लिए फिल्म फेयर पुरस्कारों की बाढ़ सी आ गई। गुलज़ार को अब तक कुल 19 फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।

गुलज़ार की प्रतिभा को आंकना शायद सूर्य को दिये दिखाना जैसा होगा। गुलज़ार आज किसी सम्मान के मोहताज नहीं है। गुलज़ार को उनकी प्रतिभा के लिए कई सम्मानों से नवाजा गया है। गुलज़ार को वर्ष 2002 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। वर्ष 2004 में गुलज़ार को उनके सिनेमाई सृजन की खासियतों और अवदान के लिए भारत सरकार द्वारा भी देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया जा चुका है। 2009 में आयी ब्रिटिश फिल्म निर्देशक डैनी बॉयल निर्देशित फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर में उनके द्वारा लिखे गीत ‘जय हो’ के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीत का ऑस्कर पुरस्कार भी मिल चुका है। इसी गीत के लिये उन्हें ग्रैमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। सन् 2013 में फिल्मों में गुलज़ार के अप्रतिम योगदान को देखते हुए सिनेमा के क्षेत्र में दिये जाने वाले भारत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।

गुलज़ार वास्तव में भारतीय सिनेमा के युगपुरुष हैं, इतनी बहुमुखी प्रतिभा (गीतकार, कथाकार, पटकथा लेखक, निर्माता, निर्देशक) एक साथ शायद ही किसी व्यक्ति में देखनें को मिले। यही वजह है की उनकी कलम का जादू सभी पर चला है, लेकिन आज भी गुलज़ार की कलम का जादू कुछ कम नहीं है। गुलज़ार की सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचय हमें उनके साहित्य और फिल्मों में समान रूप से दिखता है। गुलज़ार के निर्देशन में बनी फिल्मों में  दर्शक प्रेम के साथ-साथ इंसानी रिश्तों के नए और बेहतरीन चेहरों से परिचित होते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सत्तर का दशक गुलज़ार के फिल्म जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण समय रहा है। गुलज़ार सही मायनों में मानवीय रिश्तों के कथाकार हैं, गुलज़ार ने अपनी फिल्मों में  स्त्री-पुरुष के संबंधों की विविधता, जटिलता, माधुर्य और तीव्रता को बड़े ही खूबसूरती से अपनी फिल्मों में उकेरा है।

आज गुजजार उम्र के आख़िरी पड़ाव में हैं और अपने मिज़ाज के अनुरूप कविता लेखन का काम कर रहे हैं, साथ ही रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं का अनुवाद कर रहे हैं। कोई भी व्यक्ति अपने परिश्रम और लगन से किसी एक क्षेत्र में ख़ास मुक़ाम हासिल कर सकता है। लेकिन वहीं कोई व्यक्ति अलग-अलग क्षेत्र में हाथ आजमाये और उनमें अलग-अलग ख़ास मुक़ाम बनाता चले। यह गुलज़ार ही कर सकते हैं। गुलज़ार के काम का दायरा अत्यंत ही विविध है। बावजूद इसके वे बिना थके और बिना खुद को दोहराए अपने सृजन के काम में अनवरत रूप से संलग्न हैं। इतने बृहद दायरे के साथ सृजन का वैविध्यपूर्ण कार्य तभी संभव हो सकता है जब कोई सम्पूर्ण सिंह कालरा गुलज़ार में तब्दील हो जाए। लेकिन यह तब्दीली इतनी आसान नहीं है और ना ही आसान है किसी और का यूं ही गुलज़ार हो जाना।

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